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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
इ॒मं स्तोम॒मर्ह॑ते जा॒तवे॑दसे॒ रथ॑मिव॒ सं म॑हेमा मनी॒षया॑। भ॒द्रा हि नः॒ प्रम॑तिरस्य सं॒सद्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । स्तोम॑म् । अर्ह॑ते । जा॒तऽवे॑दसे । रथ॑म्ऽइव । सम् । म॒हे॒म॒ । म॒नी॒षया॑ ॥ भ॒द्रा । हि । न॒: । प्रऽम॑ति: । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽसदि॑ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥१३.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया। भद्रा हि नः प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । स्तोमम् । अर्हते । जातऽवेदसे । रथम्ऽइव । सम् । महेम । मनीषया ॥ भद्रा । हि । न: । प्रऽमति: । अस्य । सम्ऽसदि । अग्ने । सख्ये । मा । रिषाम । वयम् । तव ॥१३.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
विषय - कुत्स
पदार्थ -
१. (अर्हते) = पूज्य (जातवेदसे) = सर्वज्ञ उस प्रभु के लिए (इमं स्तोमम्) = इस स्तोत्र को (मनीषया) = बुद्धि से-समझदारी से-विचारपूर्वक (संमहेम) = सम्यक् पूजित-निष्पादित करें। हम ज्ञानपूर्वक प्रभु का स्तवन करें। यह स्तोम (रथम् इव) = जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए रथ के समान है। यह जीवन-यात्रा की पूर्ति का साधन बनता है। इससे हमारे सामने लक्ष्यदृष्टि उत्पन्न होती है। २. (अस्य) = इस पूजनीय प्रभु की (संसदि) = उपासना में-समीप स्थिति में (नः) = हमारी (प्रमति:) = प्रकृष्ट बुद्धि (भद्रा) = कल्याणी होती है। हे (अग्ने) = परमात्मन्! (वयम्) = हम (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (मा रिषाम) = मत हिंसित होवें।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु-स्तवन जीवन-यात्रा में रथ के समान होता है। प्रभु की उपासना से कल्याणी मति प्राप्त होती है। यह उपासना हमें विनष्ट नहीं होने देती।
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