अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 141/ मन्त्र 2
यदिन्द्रे॑ण स॒रथं॑ या॒थो अ॑श्विना॒ यद्वा॑ वा॒युना॒ भव॑थः॒ समो॑कसा। यदा॑दि॒त्येभि॑रृ॒भुभिः॑ स॒जोष॑सा॒ यद्वा॒ विष्णो॑र्वि॒क्रम॑णेषु॒ तिष्ठ॑थः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इन्द्रे॑ण । स॒ऽरथ॑म् । या॒थ: । अ॒श्वि॒ना॒ । यत् । वा॒ । वा॒युना॑ । भव॑थ: । सम्ऽओ॑कसा ॥ यत् । आ॒दि॒त्येभि॑: । ऋ॒भुऽभि॑: । स॒ऽजोष॑सा । यत् । वा॒ । विष्णो॑: । वि॒ऽक्रम॑णेषु । तिष्ठ॑थ: ॥१४१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्रेण सरथं याथो अश्विना यद्वा वायुना भवथः समोकसा। यदादित्येभिरृभुभिः सजोषसा यद्वा विष्णोर्विक्रमणेषु तिष्ठथः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इन्द्रेण । सऽरथम् । याथ: । अश्विना । यत् । वा । वायुना । भवथ: । सम्ऽओकसा ॥ यत् । आदित्येभि: । ऋभुऽभि: । सऽजोषसा । यत् । वा । विष्णो: । विऽक्रमणेषु । तिष्ठथ: ॥१४१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 141; मन्त्र » 2
विषय - इन्द्र, वायु, आदित्य, विष्णु
पदार्थ -
१. 'प्राणसाधना हमें जितेन्द्रिय बनाती है' इस बात को इस रूप में कहते हैं कि हे (अश्विना) = प्राणापानो! आपकी साधना होने पर समय आता है (यत्) = जबकि (इन्द्रेण) = जितेन्द्रिय पुरुष के साथ (सरथं याथः) = समान रथ में गति करते हो। शरीर ही रथ है। इसमें जितेन्द्रिय पुरुष का प्राणों के साथ निवास होता है। (यद् वा) = अथवा आप (वायुना) = वायु के साथ [वा गती] गतिशील पुरुष के साथ (सम् ओकसा) = समान गृहवाले (भवथ) = होते हो, अर्थात् प्राणसाधना हमारे जीवनों को बड़ा क्रियाशील बनाती है। २. हे प्राणापानो! (यत्) = अब आप (ऋभुभिः) = [उरुभान्ति, ऋतेन भान्ति]-ज्ञानज्योति से खूब दीप्त होनेवाले (आदत्येभिः) = सब ज्ञानों का आदान करनेवाले पुरुषों के साथ (सजोषसा) = प्रीतियुक्त होते हो। (यद् वा) = अथवा आप (विष्णो:) = व्यापक उन्नति करनेवाले पुरुष के (विक्रमणेषु) = विक्रमणों में-तीन कदमों में (तिष्ठथ:) = स्थित होते हो। शरीर को "तैजस्' बनाना ही इस विष्णु का पहला कदम है। मन को वैश्वानर' बनाना-सब मनुष्यों के हित की कामनावाला बनाना दूसरा कदम है। मस्तिष्क को 'प्राज्ञ' बनाना तीसरा-ये सब कदम प्राणसाधना से ही रक्खे जाते हैं।
भावार्थ - प्राणसाधना हमें 'जितेन्द्रिय, क्रियाशील, ज्ञानदीस व व्यापक' उन्नतिवाला [विष्णु] बनाती है।
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