अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 141/ मन्त्र 5
यन्ना॑सत्या परा॒के अ॑र्वा॒के अस्ति॑ भेष॒जम्। तेन॑ नू॒नं वि॑म॒दाय॑ प्रचेतसा छ॒र्दिर्व॒त्साय॑ य॒च्छत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ना॒स॒त्या॒ । प॒रा॒के । अ॒र्वा॒के । अस्ति॑ । भे॒ष॒जम् ॥ तेन॑ । नू॒नम् । वि॒ऽम॒दाय॑ । प्र॒ऽचे॒त॒सा॑ । छ॒र्दि: । व॒त्साय॑ । य॒च्छ॒त॒म् ॥१४१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्नासत्या पराके अर्वाके अस्ति भेषजम्। तेन नूनं विमदाय प्रचेतसा छर्दिर्वत्साय यच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । नासत्या । पराके । अर्वाके । अस्ति । भेषजम् ॥ तेन । नूनम् । विऽमदाय । प्रऽचेतसा । छर्दि: । वत्साय । यच्छतम् ॥१४१.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 141; मन्त्र » 5
विषय - वत्स, विमद
पदार्थ -
१. प्राणापान वासना को विनष्ट करके ज्ञानदीति का साधन बनते हैं तो इन्हें 'प्रचेतसा' कहा गया है। हे (नासत्या) = हमारे जीवनों से असत्य को दूर करनेवाले प्राणापानो! (यत्) = जो (पराके) = दूर देश के विषय में तथा (अर्वाके) = समीप क्षेत्र के विषय में (भेषजम्) = औषध (अस्ति) = है, (तेन) = उस औषध के साथ हे (प्रचेतसा) = प्रकृष्ट ज्ञान के साधनभूत प्राणापानो! (नूनम्) = निश्चय से (वत्साय) = इस ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाले (विमदाय) = मद व अभिमान से शून्य-जीवनवाले इस ऋषि के लिए (छर्दिः) = सुरक्षित गृह प्राप्त कराओ। २. यह शरीर ही सुरक्षित गृह है। जब इसमें प्रथम ड्योढ़ी के रूप में स्थित अन्नमयकोश नीरोग होता है तथा तृतीय ड्योढ़ी के रूपमें स्थित मनोमयकोश वासनाशून्य होता है तब यह शरीर-गृह बड़ा सुन्दर बनता है। इसे ऐसा बनाने के लिए प्राणसाधना ही साधन है। यही प्राणों का 'अर्वाक व पराक' क्षेत्र के विषय में भेषज है। ये प्राण रोगों व वासनाओं पर आक्रमण करके इस गृह को दृढ़ व प्रकाशमय बनाते हैं। प्राणापान इस शरीरगृह के पति को 'वत्स व विमद' बनाते हैं।
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर के रोग दूर होंगे और मन की वासनाएँ नष्ट होंगी। इसप्रकार यह शरीर-गृह बड़ा सुन्दर बनेगा।
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