अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 1
अभु॑त्स्यु॒ प्र दे॒व्या सा॒कं वा॒चाह॑म॒श्विनोः॑। व्या॑वर्दे॒व्या म॒तिं वि रा॒तिं मर्त्ये॑भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठअभु॑त्सि । ऊं॒ इति॑ । प्र । दे॒व्या । सा॒कम् । वा॒चा । अ॒हम् । अ॒श्विनो॑: ॥ वि । आ॒व॒: । दे॒वि॒ । आ । मतिम् । वि । रा॒तिम् ।मर्त्ये॑भ्य: ॥१४२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभुत्स्यु प्र देव्या साकं वाचाहमश्विनोः। व्यावर्देव्या मतिं वि रातिं मर्त्येभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअभुत्सि । ऊं इति । प्र । देव्या । साकम् । वाचा । अहम् । अश्विनो: ॥ वि । आव: । देवि । आ । मतिम् । वि । रातिम् ।मर्त्येभ्य: ॥१४२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 1
विषय - मतिम्-रातिम्
पदार्थ -
१. (अहम्) = मैं (अश्विनो:) = प्राणापान की (वाचा) = स्तुतिरूप वाणी के द्वारा (देव्या साकम्) = इस प्रकाशमयी ज्ञानवाणी के साथ (उ प्र अभुत्सि) = सचमुच प्रबुद्ध हो उठा हूँ। जब मैं प्राणापान के स्तवन व साधन में प्रवृत्त होता है तब मैं ज्ञानदीप्ति प्राप्त करता हूँ। २. हे (देवि) = प्रकाशमयी ज्ञानवाणि! तू (आ) = [गच्छ]-आ, हमें प्राप्त हो और (मतिं व्याव:) = हमारी बुद्धि को अज्ञानान्धकार के आवरणों से रहित कर तथा (मर्त्येभ्यः) = मनुष्यों के लिए (रातिम्) = धनों को वि [आव: यच्छ] देनेवाली हो।
भावार्थ - प्राणसाधक ज्ञानदीसि तथा आवश्यक धनों को प्राप्त करता है।
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