अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 5
प्र द्यु॒म्नाय॒ प्र शव॑से॒ प्र नृ॒षाह्या॑य॒ शर्म॑णे। प्र दक्षा॑य प्रचेतसा ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । द्यु॒म्नाय॑ । प्र । शव॑से । प्र । नृ॒ऽसह्या॑य । शर्म॑णे ॥ प्र । दक्षा॑य । प्र॒ऽचे॒त॒सा॒ ॥१४२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र द्युम्नाय प्र शवसे प्र नृषाह्याय शर्मणे। प्र दक्षाय प्रचेतसा ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । द्युम्नाय । प्र । शवसे । प्र । नृऽसह्याय । शर्मणे ॥ प्र । दक्षाय । प्रऽचेतसा ॥१४२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 5
विषय - 'द्युम्न, शवस्, शर्म, दक्ष'
पदार्थ -
१. है (प्रचेतसा) = प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त करानेवाले प्राणापानो! आप हमारी (गुम्नाय) = ज्ञान- ज्योतियों के लिए (प्र) = [भवतम्]-होओ। (शवसे प्र) = बल के लिए होओ। २. इसी प्रकार (नषाह्याय) = शत्रनायकों का-काम, क्रोध, लोभरूप शत्रु सेनापतियों का पराभव करनेवाले (शर्मणे) = सुख के लिए (प्र) = [भवतम्]-होइए और (दक्षाय) = सब प्रकार की उन्नति के लिए (प्र) = होइए।
भावार्थ - प्राणसाधना द्वारा हमें 'ज्ञान, बल, शत्रु-पराजय-जनित सुख तथा विकास प्राप्त हो।
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