अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 6
यन्नू॒नं धी॒भिर॑श्विना पि॒तुर्योना॑ नि॒षीद॑थः। यद्वा॑ सु॒म्नेभि॑रुक्थ्या ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । नू॒नम् । धी॒भि: । अ॒श्वि॒ना॒ । पि॒तु: । योना॑ । नि॒ऽसीद॑थ: ॥ यत् । वा॒ । सु॒म्नेभि॑: । उ॒क्थ्या॒ ॥१४२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्नूनं धीभिरश्विना पितुर्योना निषीदथः। यद्वा सुम्नेभिरुक्थ्या ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । नूनम् । धीभि: । अश्विना । पितु: । योना । निऽसीदथ: ॥ यत् । वा । सुम्नेभि: । उक्थ्या ॥१४२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 6
विषय - धीभिः-सुम्नेभिः
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (यत्) = चूँकि (धीभि:) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के द्वारा (पितुः योना) = उस परमपिता प्रभु के गृह में (निषीदथ:) = आसीन होते हो, अर्थात् आपकी साधना के द्वारा मल-क्षय व ज्ञानदीप्ति होकर प्रभु का दर्शन होता है। (यद् वा) = अथवा (सुम्नेभि:) = स्तोत्रों के द्वारा आप ब्रह्मलोक में निवास कराते हो, अत: उवथ्या आप स्तुत्य होते हो।
भावार्थ - प्राणसाधना से बुद्धि का विकास होता है, स्तुति की प्रवृत्ति जागरित होती है। ये बुद्धि व स्तुति हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाली होती हैं। यह प्रभु के गृह में निवास करनेवाला व्यक्ति 'पुरुमीढ' अपने में शक्ति का खुब ही सेचन करनेवाला बनता है यह 'आजमीढ'-[अजा गतौ] गति का अपने में सेचन करता है। प्रभु का उपासक शक्ति व गतिवाला होता है। इन्हीं के अगले सूक्त के प्रथम सात मन्त्र हैं। आठवें का ऋषि वामदेव-सुन्दर दिव्यगुणोंवाला है। नौवें के ऋषि मेध्यातिथि व मेधातिथि है-पवित्र प्रभु की ओर चलनेवाले, बुद्धि की ओर चलनेवाले। प्रथम मन्त्र यह है -
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