अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 1
सूक्त - पुरमीढाजमीढौ
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १४३
तं वां॒ रथं॑ व॒यम॒द्या हु॑वेम पृथु॒ज्रय॑मश्विना॒ संग॑तिं॒ गोः। यः सू॒र्यां वह॑ति वन्धुरा॒युर्गिर्वा॑हसं पुरु॒तमं॑ वसू॒युम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वा॒म् । रथ॑म् । व॒यम् । अ॒द्य । हु॒वे॒म॒ । पृ॒थु॒ऽज्रय॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । सम्ऽग॑तिम् । गो: ॥ य: । सू॒र्याम् । वह॑ति । ब॒न्धु॒रऽयु: । गिर्वा॑हसम् । पु॒रु॒ऽतम॑म् । व॒सु॒ऽयुम् ॥१४३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वां रथं वयमद्या हुवेम पृथुज्रयमश्विना संगतिं गोः। यः सूर्यां वहति वन्धुरायुर्गिर्वाहसं पुरुतमं वसूयुम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । वाम् । रथम् । वयम् । अद्य । हुवेम । पृथुऽज्रयम् । अश्विना । सम्ऽगतिम् । गो: ॥ य: । सूर्याम् । वहति । बन्धुरऽयु: । गिर्वाहसम् । पुरुऽतमम् । वसुऽयुम् ॥१४३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 1
विषय - 'पृथुज्रय' रथ
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (वयम्) = हम (अद्य) = आज (वाम्) = आपके (तं रथम) = उस शरीर-रथ की (हुवेम) = पुकार करते हैं-उस शरीर-रथ को प्राप्त करने की कामना करते हैं जोकि (पृथुज्रयम्) = बड़े वेगवाला है-स्फूर्तियुक्त है, (गो: संगतिम्) = ज्ञान की किरणों के मेलवाला है। यह रथ शक्ति के कारण गतिघाला व प्रकाशमय है। २. (यः) = जो रथ (सूर्याम्) = सूर्य की दुहिता को-बुद्धि को (वहति) = धारण करता है। (बन्धुरायु) = सौन्दयों को अपने साथ जोड़नेवाला है। हम उस रथ की कामना करते हैं, जो (गिर्वाहसम्) = ज्ञानपूर्वक स्तुति की वाणियों का धारण करता है। (पुरुत्तमम्) = खूब ही पालक व पूरक है। (वसूयुम्)-निवास के लिए आवश्यक सब धनों को अपने में लिये हुए है।
भावार्थ - प्राणसाधना से हमारा शरीर स्फूर्तिमय, ज्ञान के प्रकाशवाला, बुद्धि-सम्पन्न, सुन्दर, ज्ञानपूर्वक स्तुतिवाणियों को धारण करनेवाला, नीरोग व उत्तम निवासवाला बनता है।
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