अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 8
सूक्त - वामदेवः, मेध्यातिथिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १४३
मधु॑मती॒रोष॑धी॒र्द्याव॒ आपो॒ मधु॑मन्नो भवत्व॒न्तरि॑क्षम्। क्षेत्र॑स्य॒ पति॒र्मधु॑मान्नो अ॒स्त्वरि॑ष्यन्तो॒ अन्वे॑नं चरेम ॥
स्वर सहित पद पाठमधु॑ऽमती: । ओष॑धी: । द्याव॑: । आप॑: । मधु॑ऽमत् । न॒: । भ॒व॒तु॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् ॥ क्षेत्र॑स्य । पति॑: । मधु॑ऽमान: । न॒: । अ॒स्तु॒ । अरि॑ष्यन्त: । अनु॑ । ए॒न॒म् । च॒रे॒म॒ ॥१४३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो मधुमन्नो भवत्वन्तरिक्षम्। क्षेत्रस्य पतिर्मधुमान्नो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेनं चरेम ॥
स्वर रहित पद पाठमधुऽमती: । ओषधी: । द्याव: । आप: । मधुऽमत् । न: । भवतु । अन्तरिक्षम् ॥ क्षेत्रस्य । पति: । मधुऽमान: । न: । अस्तु । अरिष्यन्त: । अनु । एनम् । चरेम ॥१४३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 8
विषय - माधुर्य-ही-माधुर्य
पदार्थ -
१. छठे मन्त्र के अनुसार प्राणसाधनों व सम्मिलित प्रार्थना के होने पर (ओषधी: मधुमती:) = ओषधियाँ हमारे लिए माधुर्यवाली हों। (द्याव:) = द्युलोक तथा (आप:) = द्युलोक से बरसनेवाले जल माधुर्यवाले हों। द्युलोकस्थ सूर्य ने ही तो हमारे क्षेत्रस्थ अन्नों को वृष्टि द्वारा उत्पन्न करना है और सन्ताप द्वारा परिपक्व करना है। २. वायु देवता का निवासस्थान यह (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (न:) = हमारे लिए (मधुमत्) = माधुर्यवाला हो। ३. (क्षेत्रस्य पति:) = सब क्षेत्रों का स्वामी प्रभु (नः) = हमारे लिए (मधुमान् अस्तु) = माधुर्य को प्राप्त करानेवाले हों। (अरिष्यन्तः) = अहिंसित होते हुए हम (एनम् अनुचरेम) = प्रभु की अनुकूलता में गतिवाले हों। प्रभु-स्मरण ही हमें वासनाओं से हिंसित होने से बचाएगा।
भावार्थ - भावार्थ ओषधियाँ-धुलोक-जल-अन्तरिक्ष और इन सबके स्वामी प्रभु हमारे लिए माधुर्य प्रदान करें।
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