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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 143

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 6
    सूक्त - पुरमीढाजमीढौ देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४३

    नू नो॑ र॒यिं पु॑रु॒वीरं॑ बृ॒हन्तं॒ दस्रा॒ मिमा॑थामु॒भये॑ष्व॒स्मे। नरो॒ यद्वा॑मश्विना॒ स्तोम॒माव॑न्त्स॒धस्तु॑तिमाजमी॒ढासो॑ अग्मन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । न॒: । र॒यिम् । पु॒रु॒ऽवीर॑म् । बृ॒हन्त॑म् । दस्रा॑ । मिमा॑थाम् । उ॒भये॑षु । अ॒स्मे इति॑ ॥ नर॑: । यत् । वा॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । स्तोम॑म् । आव॑न् । स॒धऽस्तु॑तिम् । आ॒ज॒ऽमो॒ल्हास॑: । अ॒ग्म॒न् ॥१४३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू नो रयिं पुरुवीरं बृहन्तं दस्रा मिमाथामुभयेष्वस्मे। नरो यद्वामश्विना स्तोममावन्त्सधस्तुतिमाजमीढासो अग्मन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु । न: । रयिम् । पुरुऽवीरम् । बृहन्तम् । दस्रा । मिमाथाम् । उभयेषु । अस्मे इति ॥ नर: । यत् । वाम् । अश्विना । स्तोमम् । आवन् । सधऽस्तुतिम् । आजऽमोल्हास: । अग्मन् ॥१४३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (अस्मे) = हममें (उभयेषु) = दोनों में-मन्त्र के ऋषि पुरुमीठ व आजमीदों में रहनेवाली ये (पुरुवीरम्) = खूब वीरतावाली (बृहन्तम्) = वृद्धि की कारणभूत (रयिम्) = सम्पत्ति को (नु) = निश्चय से हे (दस्त्रा) = दु:खों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो! (न:) = हमारे लिए (मिमाथाम्) = बनाओ। हमें वह सम्पत्ति प्राप्त कराओ जो पुरुमीढ़ों व आजमीढों में रहा करती है, जो सम्पत्ति हमें वीर बनाती है व हमारी वृद्धि का कारण बनती है। २. हे (अश्विना) = प्राणापानो। (नर:) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले लोग (यत्) = जब (वाम्) = आपके (स्तोमम्) = स्तवन का (आवन्) = अपने में रक्षण करते हैं, उस समय (आजमीढास:) = गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करके सुखों का सेचन करनेवाले ये लोग (सधस्तुतिम्) = मिलकर उपासना की वृत्ति को (अग्मन्) = प्राप्त होते हैं। ये लोग परिवार में सबके सब एकत्र होकर प्रभु की उपासनावाले बनते हैं। सब प्राणायाम करते हैं और मिलकर प्रभु का गायन करते हैं।

    भावार्थ - हम प्राणायाम करें-मिलकर प्रभु का स्तवन करें। इसप्रकार ही हम उस धन को प्राप्त करेंगे जो हमें वीर गुणों से वृद्ध बनाएगा।

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