Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 143

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 5
    सूक्त - पुरमीढाजमीढौ देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४३

    आ नो॑ यातं दि॒वो अच्छा॑ पृथि॒व्या हि॑र॒ण्यये॑न सु॒वृता॒ रथे॑न। मा वा॑म॒न्ये नि य॑मन्देव॒यन्तः॒ सं यद्द॒दे नाभिः॑ पू॒र्व्या वा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒: । या॒त॒म् । दि॒व: । अच्छ॑ । पृ॒थि॒व्या: । हि॒र॒ण्यये॑न । सु॒ऽवृता॑ । रथे॑न ॥ मा । वा॒म् । अ॒न्ये । नि । य॒म॒न् । दे॒व॒यन्त॑: । सम् । यत् । द॒दे । नाभि॑: । पू॒र्व्या । वा॒म् ॥१४३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो यातं दिवो अच्छा पृथिव्या हिरण्ययेन सुवृता रथेन। मा वामन्ये नि यमन्देवयन्तः सं यद्ददे नाभिः पूर्व्या वाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । न: । यातम् । दिव: । अच्छ । पृथिव्या: । हिरण्ययेन । सुऽवृता । रथेन ॥ मा । वाम् । अन्ये । नि । यमन् । देवयन्त: । सम् । यत् । ददे । नाभि: । पूर्व्या । वाम् ॥१४३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे प्राणापानो ! (दिवः पृथिव्याः अच्छा) = द्युलोक व पृथिवीलोक का लक्ष्य करके, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर का ध्यान करके (न:) = हमारे लिए आप (हिरण्ययेन) = ज्योतिर्मय (सुवृता) = [सुष्टु वर्तते]-बिलकुल ठीक-ठाक, अर्थात् सर्वांगपूर्ण (रथेन) = शरीर-रथ से (आयातम्) = प्राप्त होओ। प्राणापान की साधना ही इस शरीर-रथ को सुन्दर बनाती है। २. (अन्ये) = दूसरे (देवयन्तः) = धूत आदि क्रीड़ाओं को करते हुए लोग (वाम्) = आपको (मा नियमन्) = रोकनेवाले न हों, अर्थात् हम अन्य व्यवहारों में उलझकर आपकी साधना को कभी भूल न जाएँ। (यत्) = चूँकि (वाम्) = आपका तो (पूर्व्या) = सर्वमुख्य-सर्वप्रथम (नाभिः) = सम्बन्ध [नह बन्धने] (सं ददे) = मुझे आपके साथ बाँधता है। मेरा सर्वोत्तम सम्बन्ध आपके साथ ही तो है। आत्मा के साथ प्राणों का दृढ़ सम्बन्ध है।

    भावार्थ - प्राणसाधना से ही हमारा मस्तिष्क हिरण्यय [ज्योतिर्मय] बनता है तथा शरीर सुवृत्-पूर्ण स्वस्थ होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top