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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 143

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 4
    सूक्त - पुरमीढाजमीढौ देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४३

    हि॑र॒ण्यये॑न पुरुभू॒ रथे॑ने॒मं य॒ज्ञं ना॑स॒त्योप॑ यातम्। पिबा॑थ॒ इन्मधु॑नः सो॒म्यस्य॒ दध॑थो॒ रत्नं॑ विध॒ते जना॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्यये॑न । पु॒रु॒भू॒ इति॑ पुरुऽभू । रथे॑न । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । ना॒स॒त्या॒ । उप॑ । या॒त॒म् ॥ पिबा॑थ: । इत् । मधु॑न: । सो॒म्यस्य॑ । दध॑थ: । रत्न॑म् । वि॒ध॒ते । जना॑य ॥१४३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्ययेन पुरुभू रथेनेमं यज्ञं नासत्योप यातम्। पिबाथ इन्मधुनः सोम्यस्य दधथो रत्नं विधते जनाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्ययेन । पुरुभू इति पुरुऽभू । रथेन । इमम् । यज्ञम् । नासत्या । उप । यातम् ॥ पिबाथ: । इत् । मधुन: । सोम्यस्य । दधथ: । रत्नम् । विधते । जनाय ॥१४३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. हे (परिभू) = [परि- पालनपूरणयोः] पालक व पूरक होते हुए-या शरीर में चारों ओर व्याप्त होते हुए (नासत्या:) = प्राणापानो! आप (हिरण्ययेन रथेन) = ज्योतिर्मय शरीर-रथ से (इमं यज्ञम्) = हमारे इस जीवन-यज्ञ को (उपयातम्) = समीपता से प्राप्त होओ। आपकी साधना से हमारा यह शरीर रथ ज्योतिर्मय व तेजस्वी बने । आपकी साधना से हम जीवन-यज्ञ को सुन्दरता से पूर्ण करनेवाले हों। २.हे प्राणापानो! आप (इत्) = निश्चय से (सोम्यस्य मधुन:) = इस सोम-सम्बन्धी मधु का (पिबाथ:) = पान करते हो-सोम को शरीर में ही सुरक्षित करते हो। हे प्राणापानो। आप विधते (जनाय) = परिचर्या करनेवाले उपासक मनुष्य के लिए (रत्नं दधथ:) = रमणीय वस्तुओं को धारण करते हो।

    भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर-रथ ज्योतिर्मय व तेजस्वी बनता है, सोम का रक्षण होता है तथा शरीर में सब रत्नों का धारण होता है।

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