अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 9
प॒नाय्यं॒ तद॑श्विना कृ॒तं वां॑ वृष॒भो दि॒वो रज॑सः पृथि॒व्याः। स॒हस्रं॒ शंसा॑ उ॒त ये गवि॑ष्टौ॒ सर्वाँ॒ इत्ताँ उप॑ याता॒ पिब॑ध्यै ॥
स्वर सहित पद पाठप॒नाय्य॑म् । तत् । अ॒श्वि॒ना॒ । कृ॒तम् । वा॒म् । वृ॒ष॒भ: । दि॒व: । रज॑स: । पृ॒थि॒व्या: ॥ स॒हस्र॑म् । शंसा॑: । उ॒त । ये । गोऽइ॑ष्टौ । सर्वा॑न् । इत् । तान् । उप॑ । या॒त॒ । पिब॑ध्यै ॥१४३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
पनाय्यं तदश्विना कृतं वां वृषभो दिवो रजसः पृथिव्याः। सहस्रं शंसा उत ये गविष्टौ सर्वाँ इत्ताँ उप याता पिबध्यै ॥
स्वर रहित पद पाठपनाय्यम् । तत् । अश्विना । कृतम् । वाम् । वृषभ: । दिव: । रजस: । पृथिव्या: ॥ सहस्रम् । शंसा: । उत । ये । गोऽइष्टौ । सर्वान् । इत् । तान् । उप । यात । पिबध्यै ॥१४३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 9
विषय - 'शरीर, मन व बुद्धि' का शक्ति-सम्पन्न होना पनाय्य॑ तर्दश्विना कृतं वो वृषभो दिवो रजसः पृथिव्याः। सहस्र शंसा उत ये गविष्टी सी इत्तों उप याता पिबध्यै॥९॥
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (वाम्) = आपका (तत्) = वह (कृतम्) = कर्म (पनाय्यम्) = स्तुत्य है, जोकि (दिवः) = मस्तिष्करूप द्युलोक में, (रजस:) = हदयरूप अन्तरिक्षलोक में तथा (पृथिव्याः) = शरीररूप पृथिवीलोक में (वृषभ:) = शक्ति का सेचन करनेवाला है। प्राणापान शरीर में सोम की ऊर्ध्वगति का कारण बनते हैं और इस सुरक्षित सोम के द्वारा वे 'शरीर, हृदय व मस्तिष्क' को शक्ति सम्पन्न बनाते हैं। २. (उत) = और (पिबध्यै) = सोमपान के लिए (ये) = जो गविष्टौ ज्ञानयज्ञों में (सहस्त्रम्) = हजारों (शंसा:) = ज्ञान की वाणियों के उच्चारण हैं, (तान् सर्वान्) = उन सबको (उपयात) = समीपता से प्राप्त होओ। इन ज्ञान की वाणियों के अध्ययन से वासनाओं की ओर झुकाव नहीं होता और इसप्रकार सोम का रक्षण होता है, अत: प्राणायाम के अभ्यासी को चाहिए कि अतिरिक्त समय को सदा स्वाध्याय में व्यतीत करे।
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर, मन व बुद्धि-तीनों ही सशक्त बनते हैं। सोम-रक्षण के लिए यह भी आवश्यक है कि मनुष्य अतिरिक्त समय का यापन स्वाध्याय में करे।
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