अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
अध॑ ते॒ विश्व॒मनु॑ हासदि॒ष्टय॒ आपो॑ नि॒म्नेव॒ सव॑ना ह॒विष्म॑तः। यत्पर्व॑ते॒ न स॒मशी॑त हर्य॒त इन्द्र॑स्य॒ वज्रः॒ श्नथि॑ता हिर॒ण्ययः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । ते॒ । विश्व॑म् । अनु॑ । ह॒ । अ॒स॒त् । इ॒ष्टये॑ । आप॑: । नि॒म्नाऽइ॑व । सव॑ना । ह॒विष्म॑त: ॥ यत् । पर्व॑ते । न । स॒म्ऽअशी॑त । ह॒र्य॒त: । इन्द्र॑स्य । वज्र॑: । श्नथि॑ता । हि॒र॒ण्यय॑: ॥१५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अध ते विश्वमनु हासदिष्टय आपो निम्नेव सवना हविष्मतः। यत्पर्वते न समशीत हर्यत इन्द्रस्य वज्रः श्नथिता हिरण्ययः ॥
स्वर रहित पद पाठअध । ते । विश्वम् । अनु । ह । असत् । इष्टये । आप: । निम्नाऽइव । सवना । हविष्मत: ॥ यत् । पर्वते । न । सम्ऽअशीत । हर्यत: । इन्द्रस्य । वज्र: । श्नथिता । हिरण्यय: ॥१५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु-पूजन की सहजवृत्ति
पदार्थ -
१. (अध) = अब, हे इन्द्र ! (ते इष्टये) = आपके पूजन के लिए (विश्वम्) = सम्पूर्ण (जगत् ह) = निश्चय से (अनु असत्) = अनुकूल हो। हमारी सारी परिस्थिति इसप्रकार की हो कि हम आपका पूजन कर सकें। (हविष्मत:) = यज्ञशील पुरुष के (सवना) = जीवन के तीनों सवन-प्रात:सवन, माध्यन्दिन सवन व सायन्तनसवन-प्रथम २४ वर्ष, अगले ४४ वर्ष व अन्तिम ४८ वर्ष-आपकी ओर इसप्रकार अग्रसर हों, (इव) = जैसेकि (आप:निम्ना) = जल निम्नप्रदेश की ओर बहाववाले होते हैं। हम अपने जीवन में आपके प्रति सहज पूजा की वृत्तिवाले हों। २, इसलिए हम आपकी पूजावाले हों, (यत्) = जिससे कि (इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का (वज्र:) = क्रियाशीलतारूप वज्र (हर्यत) = बड़ा कान्त [कमनीय] हो, (श्रथिता) = वासनारूप शत्रुओं का हिंसक हो और (पर्वते) = अविद्यापर्वत पर (न समशीत) = सक्त न हो जाए, अपितु उस अविद्यापर्वत का विदारण करनेवाला ही बने। प्रभु का पूजन हमें इसप्रकार यज्ञ आदि उत्तमकर्मों में प्रवृत्त करेगा कि हम अविद्यापर्वत का विदारण, ज्ञान-प्रकाश की प्राप्ति और वासनान्धकार को विनष्ट कर सकेंगे।
भावार्थ - हमारी सारी परिस्थिति हमें प्रभु-पूजन की ओर झुकानेवाली हो। हम सदा प्रभु पूजन की सहज वृत्तिवाले हों। क्रियाशील बनकर अविद्या-विध्वंस करते हुए वासनाओं को दग्ध करनेवाले बनें।
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