अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं म॒हामु॒रुं वज्रे॑ण वज्रिन्पर्व॒शश्च॑कर्तिथ। अवा॑सृजो॒ निवृ॑ताः॒ सर्त॒वा अ॒पः स॒त्रा विश्वं॑ दधिषे॒ केव॑लं॒ सहः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । तम् । इ॒न्द्र॒ । पर्व॑तम् । म॒हान् । उ॒रुम् । वज्रे॑ण ॥ व॒ज्रि॒न् । प॒र्व॒ऽश: । च॒क॒र्ति॒थ॒ ॥ अव॑ । अ॒सृ॒ज॒: । निऽवृ॑ता: । सर्त॒वै । अ॒प: । स॒त्रा । विश्व॑म् । द॒धि॒षे॒ । केव॑लम् । सह॑: ॥१५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन्पर्वशश्चकर्तिथ। अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । तम् । इन्द्र । पर्वतम् । महान् । उरुम् । वज्रेण ॥ वज्रिन् । पर्वऽश: । चकर्तिथ ॥ अव । असृज: । निऽवृता: । सर्तवै । अप: । सत्रा । विश्वम् । दधिषे । केवलम् । सह: ॥१५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
विषय - अविद्यापर्वत का विदारण
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले (वनिन्) = ज्ञानवज को हाथ में लिये हुए प्रभो! (त्वम्) = आप (तम्) = उस (महान्) = महान् (उरुम्) = विशाल (पवर्तम्) = अविद्यापर्वत को (वज्रेण) = ज्ञान-वज्र के द्वारा (पर्वश:) = एक-एक पर्व करके चकर्तिथ काट डालते हैं। हृदय में प्रभु की स्थिति होते ही सब अज्ञानान्धकार विलीन हो जाता है। २. अविद्यापर्वत के विनाश के द्वारा आप (निवृता:) = वासना के आवरण से ढके हुए अप: रेत:कणों को (सर्तव) = शरीर में गति के लिए (अवासृज:) = विसृष्ट करते हैं। काम के पाश से मुक्त होने पर रेत:कण शरीर में ही गतिवाले होते हैं। इसप्रकार (सत्रा) = सचमुच (विश्वम) = सब-अंग-प्रत्यंग में प्रविष्ट (केवलम्) = आनन्द में विचरण करानेवाले (सहः) = बल को (दधिषे) = धारण करते हैं।
भावार्थ - प्रभु ज्ञानव द्वारा अविद्यापर्वत का विदारण करते हैं। इसप्रकार वासना-विनाश के द्वारा सोमकणों को शरीर में गति कराते हुए वे प्रभु हममें आनन्दप्रद बल को स्थापित करते हैं। वासनाओं से पीड़ित न होनेवाला यह उपासक अपने अन्दर प्राणशक्ति को धारण करता है, अतः 'अयास्य' कहलाता है-अनधक। यह अगले सूक्त का ऋषि है। यह 'बृहस्पति' नाम से प्रभु का स्तवन करता है -
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