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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेधातिथिः, प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१८

    व॒यमु॑ त्वा त॒दिद॑र्था॒ इन्द्र॑ त्वा॒यन्तः॒ सखा॑यः। कण्वा॑ उ॒क्थेभि॑र्जरन्ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । त॒दित्ऽअ॑र्था: । इन्द्र॑ । त्वा॒ऽवन्त॑: । सखा॑य: ॥ कण्वा॑: । उ॒क्थेभि॑: । ज॒र॒न्ते॒ ॥१८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयमु त्वा तदिदर्था इन्द्र त्वायन्तः सखायः। कण्वा उक्थेभिर्जरन्ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । ऊं इति । त्वा । तदित्ऽअर्था: । इन्द्र । त्वाऽवन्त: । सखाय: ॥ कण्वा: । उक्थेभि: । जरन्ते ॥१८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 18; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवान् प्रभो! (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (तदिदार्था:) = [तदेव स्तोत्रं अर्थ: प्रयोजनं येषाम्] आपके स्तोत्ररूप प्रयोजनवाले ही हैं। (त्वायन्त) = [त्वाम् आत्मन इच्छन्तः] आपको ही प्राप्त करने की कामनावाले हैं। (त्वा सखायः) = [तव] आपके ही मित्र हैं। २. (कण्वा:) = मेधावी पुरुष (उक्थेभि:) = स्तोत्रों से (त्वा जरन्ते) = आपका ही स्तवन करते हैं।

    भावार्थ - हमारा प्रयोजन एकमात्र प्रभु-प्राप्ति हो। प्रभु-प्राप्ति की हम कामनावाले हों। प्रभु के ही मित्र हों। प्रभु का ही स्तवन करें।

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