अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
व॒यमि॑न्द्र त्वा॒यवो॒ऽभि प्र णो॑नुमो वृषन्। वि॒द्धि त्वस्य नो॑ वसो ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । इ॒न्द्र॒ । त्वा॒ऽयव॑: । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒म॒: । वृ॒ष॒न् । वि॒द्धि । तु । अ॒स्य । न॒: । व॒सो॒ इति॑ ॥१८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमिन्द्र त्वायवोऽभि प्र णोनुमो वृषन्। विद्धि त्वस्य नो वसो ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । इन्द्र । त्वाऽयव: । अभि । प्र । नोनुम: । वृषन् । विद्धि । तु । अस्य । न: । वसो इति ॥१८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
विषय - अभि प्रणोनुमः
पदार्थ -
१. हे (वृषन्) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (इन्द्र) = प्रभो! (वयम्) = हम (त्वायव:) = आपको प्राप्त करने की कामनावाले होते हुए (अभि प्रणोनुम:) = आभिमुख्येन खुब ही स्तवन करते हैं। २. हे (वसो) = निवासक प्रभो! (न:) = हमारे (अस्य) = इस स्तोत्र को (विद्धी तु) = आप अवश्य जानिए ही। हम आपका स्तवन करें। यह स्तवन हमें आपका प्रिय बनाए। इस स्तवन से हम कुछ आपसे ही बन पाएँ।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन हमें पवित्र जीवनवाला बनाता हुआ प्रभु का प्रिय बनाए।
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