अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
योगे॑योगे त॒वस्त॑रं॒ वाजे॑वाजे हवामहे। सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयोगे॑ऽयोगे । त॒व:ऽत॑रम् । वाजे॑ऽवाजे । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ सखा॑य: । इन्द्र॑म् । ऊ॒तये॑ ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे। सखाय इन्द्रमूतये ॥
स्वर रहित पद पाठयोगेऽयोगे । तव:ऽतरम् । वाजेऽवाजे । हवामहे ॥ सखाय: । इन्द्रम् । ऊतये ॥२६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
विषय - योगे-योगे तवस्तरम्
पदार्थ -
१. हम (सखायः) = परस्पर सखा बनते हुए-परस्पर मित्रभाव से वर्तते हुए (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (हवामहे) = पुकारते हैं। प्रभु ने ही तो हमें वास्तविक रक्षण प्राप्त कराना है। २. हम उस प्रभु को (वाजेवाजे) = [Conflict, Battle] प्रत्येक संग्नाम में पुकारते हैं, जोकि (योगेयोगे तवस्तरम्) = जितना-जितना सम्पर्क होता है, उतना ही अधिक शक्ति को प्राप्त करानेवाले हैं। जितना-जितना यह उपासक प्रभु के समीप प्राप्त होता है, उतना-उतना ही अधिक शक्तिशाली बनता है। प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर ही यह उपासक काम क्रोध आदि को पराजित कर पाता है।
भावार्थ - हम प्रभु को पुकारें-प्रभु के अधिकाधिक सम्पर्क में आयें, प्रभु हमें शक्ति देंगे और हम शत्रुओं को पराजित कर पाएंगे।
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