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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२६

    यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । ह॒री इति॑ । विऽप॑क्षसा । रथे॑ ॥ शोणा॑ । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥२६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरी इति । विऽपक्षसा । रथे ॥ शोणा । धृष्णू इति । नृऽवाहसा ॥२६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 26; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. उपासक लोग (रथे) = अपने शरीर-रथ में (अस्य) = इस प्रभु से दिये गये [प्रभु के] (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (युञ्जन्ति) = युक्त करते हैं। उन इन्द्रियाश्वों से युक्त करते हैं, जो काम्या चाहने योग्य व सुन्दर हैं। (विपक्षसा) = विशिष्टरूप से अपने-अपने कार्यों का परिग्रह करनेवाले हैं। २. इस उपासक के ये इन्द्रियाश्व (शोणा) = तेजस्विता से चमकनेवाले व गतिशील [शोणति togo, to move], (कृष्णू) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले व (नृवाहसा) = मनुष्यों को लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले हैं।

    भावार्थ - उपासक उन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करता है, जो कमनीय, विशिष्टरूप से अपने कार्यों को करनेवाले, तेजस्वी-शत्रुधर्षक व उसे लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले होते हैं।

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