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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२८

    व्यन्तरि॑क्षमतिर॒न्मदे॒ सोम॑स्य रोच॒ना। इन्द्रो॒ यदभि॑नद्व॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒त् । मदे॑ । सोम॑स्य । रो॒च॒ना ॥ इन्द्र॑: । अभि॑नत् । व॒लम् ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यन्तरिक्षमतिरन्मदे सोमस्य रोचना। इन्द्रो यदभिनद्वलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । अन्तरिक्षम् । अतिरत् । मदे । सोमस्य । रोचना ॥ इन्द्र: । अभिनत् । वलम् ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 28; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (सोमस्य मदे) = सोम के मद में-सोम-रक्षण से जनित उल्लास होने पर (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को (रोचना) = ज्ञानदीतियों के साथ (वि अतिरत) = बढ़ाता है। सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईधन बनता है। इस ज्ञानदीति से हृदयान्तरिक्ष चमक उठता है। २. यह सब होता तब है (यत्) = जबकि यह इन्द्र (वलम्) = ज्ञान पर आवरण के रूप में आ जानेवाली वासनाओं को (अभिनद्) = विदीर्ण कर डालता है। वासना-विदारण से ही ज्ञानाग्नि का प्रकाश होता है।

    भावार्थ - हम जितेन्द्रिय बनकर वासनारूप आवरण को विनष्ट करें और हृदय को ज्ञान प्रकाश से दीस करनेवाले बनें।

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