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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२८

    उद्गा आ॑ज॒दङ्गि॑रोभ्य आ॒विष्कृण्वन्गुहा॑ स॒तीः। अ॒र्वाञ्चं॑ नुनुदे व॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । गा: । आ॒ज॒त् । अङ्गि॑र:ऽभ्य: । आ॒वि: । कृ॒ण्वन् । गुहा॑ । स॒ती: ॥ अ॒र्वाञ्च॑म् । नु॒नु॒दे॒ । व॒लम् ॥२८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्गा आजदङ्गिरोभ्य आविष्कृण्वन्गुहा सतीः। अर्वाञ्चं नुनुदे वलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । गा: । आजत् । अङ्गिर:ऽभ्य: । आवि: । कृण्वन् । गुहा । सती: ॥ अर्वाञ्चम् । नुनुदे । वलम् ॥२८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 28; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. प्रभु (अङ्गिरोभ्यः) = इन गतिशील-कर्त्तव्य-कर्मों के करने में लगे हुए उपासकों के लिए (गुहा सती:) = अविद्यापर्वत की गुहा में वर्तमान (गा:) = इन्द्रियरूप गौओं को (आविष्कृण्वन्) = प्रकाशयुक्त करता हुआ (उद् आजत) = उत्कृष्ट गतिवाला करता है। २. इसी उद्देश्य से प्रभु (वलम्) = इस आवरणभूत वासना को (अर्वाञ्चं नुनुदे) = अधोमुख विनष्ट कर देते हैं। वासनाओं को विनष्ट करके ही तो वे इन्द्रियों को प्रकाशमय करते हैं।

    भावार्थ - प्रभु वासना को विनष्ट करके, गतिमय कर्तव्यपरायण पुरुषों की इन्द्रियों को प्रकाशमय करते हैं।

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