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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२७

    वा॑वृधा॒नस्य॑ ते व॒यं विश्वा॒ धना॑नि जि॒ग्युषः॑। ऊ॒तिमि॒न्द्रा वृ॑णीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒वृ॒धा॒नस्य॑ । ते॒ । व॒यम् । विश्वा॑ । धना॑नि । जि॒ग्युष॑: ॥ ऊ॒तिम् । इ॒न्द्र॒ । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥२७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वावृधानस्य ते वयं विश्वा धनानि जिग्युषः। ऊतिमिन्द्रा वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ववृधानस्य । ते । वयम् । विश्वा । धनानि । जिग्युष: ॥ ऊतिम् । इन्द्र । आ । वृणीमहे ॥२७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार यज्ञों द्वारा हमारे अन्दर (वावृधानस्य) = निरन्तर बढ़ते हुए, हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (वयम्) = हम (विश्वा धनानि) = सम्पूर्ण धनों को (जिग्युषः) = जीतनेवाले (ते) = आपके (ऊतिम्) = रक्षण को (आवृणीमहे) = सर्वथा वरते हैं। २. हमारी यही कामना होती है कि हम प्रभु की रक्षा के पात्र हों।

    भावार्थ - हम यज्ञों द्वारा प्रभु का अपने में वर्धन करें और इसप्रकार प्रभु द्वारा रक्षणीय हों। अगले सूक्त में भी 'गोधूक्ति व अश्वसूक्ति' ही ऋषि हैं -

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