अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२७
यदि॑न्द्रा॒हं यथा॒ त्वमीशी॑य॒ वस्व॒ एक॒ इत्। स्तो॒ता मे॒ गोष॑खा स्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्र॒ । अ॒हम् । यथा॑ । त्वम् । ईशीय॑ । वस्व॑: । इत् ॥ स्तो॒ता । मे॒ । गोऽस॑खा । स्या॒त् ॥२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत्। स्तोता मे गोषखा स्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इन्द्र । अहम् । यथा । त्वम् । ईशीय । वस्व: । इत् ॥ स्तोता । मे । गोऽसखा । स्यात् ॥२७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-स्तवन व धन-धान्य
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (यत्) = यदि (अहम्) = मैं (यथा त्वम्) = आपकी भाँति (इत्) = निश्चय से (एक:) = अद्वितीय (वस्वः ईशीय) = धन का ईश बन जाऊँ, तो (मे स्तोता) = मेरा स्तोता (गोषखा स्यात्) = प्रशस्त इन्द्रियरूप गौओं का मालिक हो जाए। अथवा गौओं का स्वामी बन जाए। उसे धन-धान्य की कमी न रहे। २. प्रभु के स्तोता को धन-धान्य की कमी नहीं रहती। प्रभु उसके योगक्षेम को सम्यक् चलाते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करते हुए अभ्युदय को प्राप्त करें। प्रशस्त इन्द्रियरूप धनवाले हैं।
इस भाष्य को एडिट करें