अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२७
य॒ज्ञ इन्द्र॑मवर्धय॒द्यद्भूमिं॒ व्य॑वर्तयत्। च॑क्रा॒ण ओ॑प॒शं दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञ: । इन्द्र॑म् । अ॒व॒र्ध॒य॒त् । यत् । भूमि॑म् । वि । अव॑र्तयत् ॥ च॒क्रा॒ण: । ओ॒प॒शम् । दि॒वि ॥२७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत्। चक्राण ओपशं दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञ: । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । वि । अवर्तयत् ॥ चक्राण: । ओपशम् । दिवि ॥२७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
विषय - यज्ञ का महत्त्व
पदार्थ -
१. (यज्ञः) = यज्ञ (इन्द्रम् अवर्थयत्) = इन्द्र को बढ़ाता है, जब हम यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं तब हमारे हृदयों में प्रभु का प्रकाश बढ़ता है। यज्ञ अर्थात् 'देवपूजा, संगतिकरण व दान' में हम जितना-जितना बढ़ते हैं उतना-उतना प्रभु के समीप होते जाते हैं। देवपूजा हमें प्रभु का उपासक बनाती है, संगतिकरण में हम प्रभु की गोद में पहुँच जाते हैं और दान [अर्पण] करके हम प्रभु में प्रविष्ट होकर प्रभु के साथ 'एक' हो जाते हैं । (यत्) = जबकि प्रभु (भूमिम्) = हमारी इस शरीररूप पृथिवी को (व्यवर्तयत) = रोगों से परे करते हैं-हमारा शरीर रोगशुन्य बनता है। २. इस समय प्रभु (दिवि) = हमारे मस्तिष्करूप धुलोक में (ओपशम्) = शिरोभूषण को-ज्ञान के आभरण को (चक्राण:) = करनेवाले होते हैं।
भावार्थ - यज्ञों द्वारा हृदय में प्रभु के प्रकाश का वर्धन होता है। इससे शरीर नीरोग बनता है और मस्तिष्क ज्ञान से अलंकृत हो जाता है।
इस भाष्य को एडिट करें