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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२७
    56

    य॒ज्ञ इन्द्र॑मवर्धय॒द्यद्भूमिं॒ व्य॑वर्तयत्। च॑क्रा॒ण ओ॑प॒शं दि॒वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञ: । इन्द्र॑म् । अ॒व॒र्ध॒य॒त् । यत् । भूमि॑म् । वि । अव॑र्तयत् ॥ च॒क्रा॒ण: । ओ॒प॒शम् । दि॒वि ॥२७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत्। चक्राण ओपशं दिवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञ: । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । वि । अवर्तयत् ॥ चक्राण: । ओपशम् । दिवि ॥२७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यज्ञः) यज्ञ [विद्वानों के सत्कार, सत्सङ्ग और विद्या आदि दान] ने (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] को (अवर्धयत्) बढ़ाया है, (यत्) जब कि (दिवि) व्यवहार के बीच (ओपशम्) पूरा उद्योग (चक्राणः) कर चुकते हुए उसने (भूमिम्) भूमि को (वि अवर्तयत्) व्याख्यात किया है ॥॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य पृथिवी पर प्रत्येक काम को योग्यता से करता है, तब वह उन्नति करके कीर्ति पाता है ॥॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र सामवेद में है पू० २”।३।७ तथा उ० ८।१।९ ॥ −(यज्ञः) देवपूजासंगतिकरणविद्यादिदानव्यवहारः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (अवर्धयत्) वर्धितवान् (यत्) यदा (भूमिम्) (वि अवर्तयत्) विवृतां व्याख्यातां कृतवान् (चक्राणः) करोतेः-कानच्। कृतवान् सन् (ओपशम्) अ० ६।१३८।१। आङ्+उप+शीङ् शयने-ड। ओपशः-उपशयः=उपयोगः। समन्तादुपयोगम् (दिवि) व्यवहारे ॥

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    विषय

    यज्ञ का महत्त्व

    पदार्थ

    १. (यज्ञः) = यज्ञ (इन्द्रम् अवर्थयत्) = इन्द्र को बढ़ाता है, जब हम यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं तब हमारे हृदयों में प्रभु का प्रकाश बढ़ता है। यज्ञ अर्थात् 'देवपूजा, संगतिकरण व दान' में हम जितना-जितना बढ़ते हैं उतना-उतना प्रभु के समीप होते जाते हैं। देवपूजा हमें प्रभु का उपासक बनाती है, संगतिकरण में हम प्रभु की गोद में पहुँच जाते हैं और दान [अर्पण] करके हम प्रभु में प्रविष्ट होकर प्रभु के साथ 'एक' हो जाते हैं । (यत्) = जबकि प्रभु (भूमिम्) = हमारी इस शरीररूप पृथिवी को (व्यवर्तयत) = रोगों से परे करते हैं-हमारा शरीर रोगशुन्य बनता है। २. इस समय प्रभु (दिवि) = हमारे मस्तिष्करूप धुलोक में (ओपशम्) = शिरोभूषण को-ज्ञान के आभरण को (चक्राण:) = करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    यज्ञों द्वारा हृदय में प्रभु के प्रकाश का वर्धन होता है। इससे शरीर नीरोग बनता है और मस्तिष्क ज्ञान से अलंकृत हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (ओपशम्) सौरमण्डल के शिरोभूषणरूप सूर्य को (दिवि) द्युलोक में (चक्राणः) प्रकट करते हुए परमेश्वर ने (यद्) जो (भूमिम्) भूमि को (व्यवर्तयत्) सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार-कक्षा में घुमाया है, इससे (यज्ञः) संसार-यज्ञ (इन्द्रम्) परमेश्वर की महिमा को (अवर्धयत्) बढ़ा रहा है।

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    विषय

    धनाढ्यों के प्रति राजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यज्ञः) यज्ञ, परस्पर का संग या व्यवस्थित राष्ट्र (इन्द्रम्) इन्द्र को (अवर्धयत्) बढ़ाता है, (यद्) जब वह और (दिवि) ज्ञानपूर्वक व्यवहार या राजसभा में (ओपशं) सब प्रकार से स्थिति (चक्राणः) करता हुआ (भूमिम्) भूमि को (वि-अवर्त्तयत्) विविध उपायों से काम में लाता है। आधिभौतिक में—(यत्) जब (यज्ञः इन्द्रम् अवर्धयत्) यज्ञ इन्द की जलप्रद शक्ति की वृद्धि करता है (दिवि ओपशं) आकाश में विद्यमान मेघ को (चक्राणः) उत्पन्न करता हुआ उसको (भूमिं व्यवर्त्तयत्) भूमि पर डालता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिना वृषी। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    धनाढ्यों के प्रति राजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यज्ञः) यज्ञ, परस्पर का संग या व्यवस्थित राष्ट्र (इन्द्रम्) इन्द्र को (अवर्धयत्) बढ़ाता है, (यद्) जब वह और (दिवि) ज्ञानपूर्वक व्यवहार या राजसभा में (ओपशं) सब प्रकार से स्थिति (चक्राणः) करता हुआ (भूमिम्) भूमि को (वि-अवर्त्तयत्) विविध उपायों से काम में लाता है। आधिभौतिक में—(यत्) जब (यज्ञः इन्द्रम् अवर्धयत्) यज्ञ इन्द की जलप्रद शक्ति की वृद्धि करता है (दिवि ओपशं) आकाश में विद्यमान मेघ को (चक्राणः) उत्पन्न करता हुआ उसको (भूमिं व्यवर्त्तयत्) भूमि पर डालता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिना वृषी। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Yajna, joint creative endeavour which protects and replenishes the earth and environment, pleases and elevates Indra, the ruler, and creates a place of bliss in the light of heaven for the doer.

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    Translation

    Yajna, the Praiseworthy Lord strengthen Indra, the cosmic electricity or the sun when He locating it in heaven moves the earth around.

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    Translation

    Yajna, the Praiseworthy Lord strengthen Indra, the cosmic electricity or the sun when He locating it in heaven moves the earth around.

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    Translation

    The sacrifice enhances the atmospheric electric energy, causing clouds in the sky, and then returning it to the earth, in the form of rain.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र सामवेद में है पू० २”।३।७ तथा उ० ८।१।९ ॥ −(यज्ञः) देवपूजासंगतिकरणविद्यादिदानव्यवहारः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (अवर्धयत्) वर्धितवान् (यत्) यदा (भूमिम्) (वि अवर्तयत्) विवृतां व्याख्यातां कृतवान् (चक्राणः) करोतेः-कानच्। कृतवान् सन् (ओपशम्) अ० ६।१३८।१। आङ्+उप+शीङ् शयने-ड। ओपशः-उपशयः=उपयोगः। समन्तादुपयोगम् (दिवि) व्यवहारे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যজ্ঞঃ) যজ্ঞ [বিদ্বানদের সৎকার, সৎসঙ্গ ও বিদ্যাদি দান] (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] কে (অবর্ধয়ৎ) বর্ধিত করে/করেছে, (যৎ) যখন (দিবি) ব্যবহারের মাঝে (ওপশম্) সম্পূর্ণ উদ্যোগ (চক্রাণঃ) সম্পন্ন করে তিনি (ভূমিম্) ভূমিকে (বি অবর্তয়ৎ) বর্ধিত করেছেন ॥৫॥

    भावार्थ

    যখন মনুষ্য পৃথিবীতে প্রত্যেক কাজ যোগ্যতার সাথে করে, তখন সে উন্নতি করে কীর্তিমান হয় ॥৫॥ এই মন্ত্র সামবেদে আছে পূ০ ২।৩।৭ তথা উ০ ৮।১।৯।

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    भाषार्थ

    (ওপশম্) সৌরমণ্ডলের শিরোভূষণরূপ সূর্যকে (দিবি) দ্যুলোকে (চক্রাণঃ) প্রকটকারী/প্রকট করে পরমেশ্বর (যদ্) যে (ভূমিম্) ভূমিকে (ব্যবর্তয়ৎ) সূর্যের চারিদিকে বৃত্তাকার-কক্ষপথে আবর্তন করিয়েছেন, ইহার মাধ্যমে/দ্বারা (যজ্ঞঃ) সংসার-যজ্ঞ (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরের মহিমাকে (অবর্ধয়ৎ) বৃদ্ধি/বর্ধিত করছে।

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