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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
आ ते॑ सिञ्चामि कु॒क्ष्योरनु॒ गात्रा॒ वि धा॑वतु। गृ॑भा॒य जि॒ह्वया॒ मधु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । सि॒ञ्चा॒मि॒ । कु॒क्ष्यो: । अनु॑ । गात्रा॑ । वि । धा॒व॒तु॒ ॥ गृ॒भा॒य । जि॒ह्वया॑ । मधु॑ ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते सिञ्चामि कुक्ष्योरनु गात्रा वि धावतु। गृभाय जिह्वया मधु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । सिञ्चामि । कुक्ष्यो: । अनु । गात्रा । वि । धावतु ॥ गृभाय । जिह्वया । मधु ॥४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
विषय - मधुरभाषण
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि मैं इस सोम को (ते कुक्ष्यो:) = तेरी कोखों में (आसिञ्चामि) = सींचता हैं। यह सोम रुधिर में व्याप्त होकर (गात्रा) = तेरे अंग-प्रत्यंग में (अनुविधावतु) = अनुक्रम से गतिवाला हो। उन अंगों में व्याप्त होकर यह शोधन करे [धावु गतिशुद्धयोः] । २. इस सोम के सर्वत्र व्यास होने पर तू (जिह्वाया) = जिह्वा से (मधु गृभाय) = मधु का ग्रहण कर, अर्थात् तू सदा मधुरभाषणवाला हो। सोम-रक्षण से सारी क्रियाओं में ही माधुर्य का व्यापन होता है, वाणी भी मधुर बनती है।
भावार्थ - प्रभु ने सोम को शरीर में इसलिए उत्पन्न किया है कि यह सब अंगों को शुद्ध बनानेवाला हो। शरीर में सुरक्षित सोम सब रोगकृमियों का संहारक होता है। वाणी को भी यह मधुर बनाता है।
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