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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
स्वा॒दुष्टे॑ अस्तु सं॒सुदे॒ मधु॑मान्त॒न्वे॒ तव॑। सोमः॒ शम॑स्तु ते हृ॒दे ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दु: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । स॒म्ऽसुदे॑ । मधु॑ऽमान् । त॒न्वे॑ । तव॑ । सोम॑: । शम् । अ॒स्तु॒ । ते॒ । हृदे ॥४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादुष्टे अस्तु संसुदे मधुमान्तन्वे तव। सोमः शमस्तु ते हृदे ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादु: । ते । अस्तु । सम्ऽसुदे । मधुऽमान् । तन्वे । तव । सोम: । शम् । अस्तु । ते । हृदे ॥४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
विषय - आनन्द-माधुर्य-शान्ति
पदार्थ -
१. (संसुदे) = उत्तम दानशील (ते) = तेरे लिए यह सोम (स्वादुः अस्तु) = जीवन को मधुर बनानेवाला हो। (तव तन्वे) = तेरे शरीर के लिए (मधुमान्) = प्रशस्त माधुर्यवाला हो। जब व्यक्ति कर्मशील बनता है तब भोगासक्ति से ऊपर उठता है। भोगों से ऊपर उठा हुआ यह जीवन को मधुर बना पाता है-इसके शरीर के सब अंगों की क्रियाएँ माधुर्य को लिये हुए होती हैं। २. (सोमः) = शरीर में सुरक्षित यह सोम (ते हृदे शम् अस्तु) = तेरे हृदय के लिए शान्ति देनेवाला हो। सोमी पुरुष के हृदय में राग-द्वेष क्षोभ पैदा करनेवाले नहीं होते-यह राग-द्वेष से शून्य जीवनवाला बनता है।
भावार्थ - सोम-रक्षण द्वारा हमारा जीवन आनन्दमय हो, व्यवहार मधुर हो तथा हृदय शान्ति से युक्त हो। अगले सूक्त का ऋषि भी 'इरिम्बिठिः' ही है -
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