अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः। प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । जनी॑:ऽइव । अ॒भि । सम्ऽवृ॑त: ॥ प्र । सोम॑: । इ॒न्द्र॒ । स॒र्प॒तु॒ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु त्वा विचर्षणे जनीरिवाभि संवृतः। प्र सोम इन्द्र सर्पतु ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ऊं इति । त्वा । विऽचर्षणे । जनी:ऽइव । अभि । सम्ऽवृत: ॥ प्र । सोम: । इन्द्र । सर्पतु ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - जनी: इव
पदार्थ -
१. हे (विचर्षणे) = विशेषरूप से देखनेवाले [नि० ३.११], अर्थात् सब पदार्थों को ठीक रूप में देखनेवाले, अतएव भोगों में न फंसनेवाले (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (अयम्) = यह (सोमः) = सोम (उ) = निश्चय से (त्वा प्रसतु) = तुझे प्राप्त हो। २. यह (अभिसंवृता:) = सब ओर से सुरक्षित [संवृत] सोम तुझे ऐसे प्राप्त हो (इव) = जैसेकि (जनी:) = पत्नी पति को प्राप्त होती है। पत्नी पति की अधांगिनी बन जाती है। यह सोम भी तेरा अंग बन जाए-तुझसे पृथक न हो। यह तेरे जीवन का आवश्यक अंश ही हो जाए। पत्नी के बिना जैसे पति का जीवन अधूरा है, उसी प्रकार सोम के बिना इन्द्र [जितेन्द्रिय पुरुष] का जीवन अधूरा है।
भावार्थ - सोम, संसार के विषयों की वास्तविकता को जाननेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के जीवन का अंग ही बन जाए। उसी प्रकार जैसेकि पत्नी पति का अंग ही हो जाती है।
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