अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
दी॒र्घस्ते॑ अस्त्वङ्कु॒शो येना॒ वसु॑ प्र॒यच्छ॑सि। यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठदी॒र्घ: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । अ॒ङ्कु॒श: । येन॑ । वसु॑ । प्र॒ऽयच्छ॑सि । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
दीर्घस्ते अस्त्वङ्कुशो येना वसु प्रयच्छसि। यजमानाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठदीर्घ: । ते । अस्तु । अङ्कुश: । येन । वसु । प्रऽयच्छसि । यजमानाय । सुन्वते ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
विषय - प्रभु का दीर्घ अंकुश
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (ते अंकुश:) = आपका नियमन [restraint, check] (दीर्घ: अस्तु) = विशाल हो। हम आपकी प्रेरणा से नियमित जीवनवाले होकर ही जीवन को बिताएँ। (येन) = जिस नियमन के द्वारा आप (वसु) = सब वसुओं को-निवास के लिए आवश्यक तत्वों को (प्रयच्छसि) = हमारे लिए देते हैं। २. (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए और सुन्वते अपने शरीर में सोम का अभिषव करनेवाले पुरुष के लिए आप वसुओं को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - प्रभु के द्वारा नियमन में चलते हुए हम यज्ञशील सोम का रक्षण करनेवाले बनें। यही वसुओं की प्राप्ति का मार्ग है।
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