अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
शाचि॑गो॒ शाचि॑पूजना॒यं रणा॑य ते सु॒तः। आख॑ण्डल॒ प्र हू॑यसे ॥
स्वर सहित पद पाठशाचि॑गो॒ इति॒ शाचि॑ऽगो । शाचि॑ऽपूजन । अ॒यम् । रणा॑य । ते॒ । सु॒त: । आख॑ण्डल । प्र । हू॒य॒से॒ ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शाचिगो शाचिपूजनायं रणाय ते सुतः। आखण्डल प्र हूयसे ॥
स्वर रहित पद पाठशाचिगो इति शाचिऽगो । शाचिऽपूजन । अयम् । रणाय । ते । सुत: । आखण्डल । प्र । हूयसे ॥५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
विषय - आखण्डल
पदार्थ -
१. (शाचिगो) = शक्तिशाली इन्द्रियों को प्राप्त करानेवाले ! (शाचिपूजन) = शक्ति देनेवाला है पूजन जिसका, ऐसे प्रभो। (अयं सोमः) = यह सोम ते रणाय आपके रमण के लिए (सुतः) सम्पादित हुआ है। इस सोम का रक्षण होने पर ही हमारे हृदयों में प्रभु का प्रकाश हुआ करता है। २. हे (आखण्डल) = समन्तात् [आ] शत्रुओं के भेदन को [खण्ड] प्राप्त करानेवाले [ल] प्रभो! (प्रहूयसे) = आप हमसे पुकारे जाते हैं। वस्तुतः आपने ही वासनारूप शत्रुओं को छिन्न करके हमारे शरीरों में सोम का रक्षण करना है। इस सुरक्षित सोम से ही सब इन्द्रियाँ शक्तिशाली बनेंगी।
भावार्थ - प्रभु-पूजन से शक्ति प्राप्त होती है-सब इन्द्रियाँ सशक्त बनती हैं। प्रभु हमारे वासनारूप शत्रुओं का विनाश करते हैं और सोम-रक्षण होने पर हम प्रभु-दर्शन कर पाते हैं।
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