अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
यस्ते॑ शृङ्गवृषो नपा॒त्प्रण॑पात्कुण्ड॒पाय्यः॑। न्यस्मिन्दध्र॒ आ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । शृ॒ङ्ग॒ऽवृ॒ष॒: । न॒पा॒त् । प्रन॑पा॒दिति॒ प्रऽन॑पात् । कु॒ण्ड॒ऽपाय्य॑: ॥ नि । अ॒स्मि॒न् । द॒ध्रे॒ । आ । मन॑: ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते शृङ्गवृषो नपात्प्रणपात्कुण्डपाय्यः। न्यस्मिन्दध्र आ मनः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । शृङ्गऽवृष: । नपात् । प्रनपादिति प्रऽनपात् । कुण्डऽपाय्य: ॥ नि । अस्मिन् । दध्रे । आ । मन: ॥५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
विषय - शृङ्गवृष
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (यः) = जो (ते) = आपका-आपसे उत्पादित किया गया यह सोम है, वह (शृङ्गवृषः) = [वृष-धर्म] हमें धर्म के शिखर पर ले-जानेवाला है-सोम-रक्षण से उन्नत होते हुए हम धर्म के शिखर पर पहुँचते हैं। यह (नपात्) = हमें न गिरने देनेवाला है। इससे सब शक्तियों सुरक्षित रहती हैं। (प्र-णपात्) = यह हमें प्रकर्षेण न गिरने देनेवाला है-हमें उत्कृष्ट व्यवहारोंवाला बनाता है। (कुण्डपाय्य:) = [कुडि दाहे] वासनाओं के दहन [विनाश] के द्वारा शरीर में पीने के योग्य है। २. हे प्रभो! मैं (अस्मिन्) = इस सोम में ही-सोम के रक्षण में ही (मन:) = मन को (नि आदध्रे) = निश्चय से धारण करता हूँ। मन में सोम-रक्षण के लिए दृढ़ निश्चय करता हूँ। इसके रक्षण के लिए ही सब उपायों का अवलम्बन करता हूँ।
भावार्थ - सुरक्षित सोम हमें [१] धर्म के शिखर पर ले-जाता है [२] इससे शक्तियाँ सुरक्षित रहती हैं, [३] यह हमारे व्यवहारों को मधुर बनाता है। वासनाओं के विनाश से ही यह शरीर में सुरक्षित करने के योग्य है। हम मन को इसके रक्षण में ही लगाएँ। यह धर्म के शिखर पर पहुँचनेवाला व्यक्ति "विश्वामित्र' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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