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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    सूक्त - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४

    आ नो॑ याहि सु॒ताव॑तो॒ऽस्माकं॑ सुष्टु॒तीरुप॑। पिबा॒ सु शि॑प्रि॒न्रन्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒: । या॒हि॒ । सु॒तऽव॑त: । अ॒स्माक॑म् । सु॒ऽस्तु॒ती: । उप॑ । पिब॑ । सु । शि॒प्रि॒न् । अन्ध॑स: ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो याहि सुतावतोऽस्माकं सुष्टुतीरुप। पिबा सु शिप्रिन्रन्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । न: । याहि । सुतऽवत: । अस्माकम् । सुऽस्तुती: । उप । पिब । सु । शिप्रिन् । अन्धस: ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 4; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! आप (सुतावत:) = सोम का सम्पादन करनेवाले व यज्ञशील (न:) = हमें (आयाहि) = प्राप्त होइए। (अस्माकम्) = हमारी (सुष्टुती:) = उत्तम स्तुतियों को (उप) = समीपता से प्राप्त होइए। हम हृदयस्थ आपका सदा उत्तम स्तवन करनेवाले बनें। २. हे (सुशिप्रिन्) = उत्तम हनू व नासिकाओं के देनेवाले प्रभो! (अन्धसः) = सोम का (सुपिब) = शरीर में ही सम्यक् पान कीजिए। हम भोजन को सम्यक् चबाते हुए [हनू] तथा प्राणायाम [नासिका] करते हुए सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर पाएँ।

    भावार्थ - सोम-रक्षण के लिए आवश्यक है कि [१] हम प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें [२] भोजन को खूब चबाकर खाएँ [३] प्राणायाम के अभ्यासी हों।

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