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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
भि॒न्धि विश्वा॒ अप॒ द्विषः॒ बाधो॑ ज॒ही मृधः॑। वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठभि॒न्धि । विश्वा॑: । अप॑ । द्विष॑: । परि॑ । बाध॑: । ज॒हि । मृध॑: ॥ वसु॑ । स्पा॒र्हम् । तत । आ । भ॒र॒ ॥४३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
भिन्धि विश्वा अप द्विषः बाधो जही मृधः। वसु स्पार्हं तदा भर ॥
स्वर रहित पद पाठभिन्धि । विश्वा: । अप । द्विष: । परि । बाध: । जहि । मृध: ॥ वसु । स्पार्हम् । तत । आ । भर ॥४३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
विषय - द्विषः-बाधो-मृधः [परिजहि]
पदार्थ -
१. (विश्वा:) = सब (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं को (भिन्धि) = विदीर्ण कर दीजिए। हमारे जीवन में द्वेष का साम्राज्य न हो। हम सबके साथ प्रीतिपूर्वक वर्तनेवाले बनें। (बाध:) = उन्नति के मार्ग में बाधक बनी हुई अशुभवृत्तियों को या व्यक्तियों को परिजहि हमसे दूर कीजिए। [हन् गती]। इसी प्रकार (मृधः) = हमें मार डालनेवाली दास्यव वृत्तियों को भी हमसे दूर कीजिए। २. द्वोषों को, - बाधाओं को व दास्यव वृत्तियों को हमसे पृथक् करके (तत्) = उस (वसु) = निवास के लिए आवश्यक धन को (आभर) = सर्वथा प्राप्त कराइए जोकि (स्पार्हम्) = स्पृहणीय है-सबसे प्राप्त करने के लिए वाञ्छनीय है।
भावार्थ - प्रभु हमसे द्वेषों, बाधाओं व शत्रुओं को पृथक् कर स्पृहणीय धन प्राप्त कराएँ।
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