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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
यस्य॑ ते वि॒श्वमा॑नुषो॒ भूरे॑र्द॒त्तस्य॒ वेद॑ति। वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ते॒ । वि॒श्वऽमा॑नुष: । भूरे॑: । द॒त्तस्य॑ । वेद॑ति ॥ वसु॑ । स्पा॒र्हम् । तत् । आ । भ॒र॒ ॥४३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते विश्वमानुषो भूरेर्दत्तस्य वेदति। वसु स्पार्हं तदा भर ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ते । विश्वऽमानुष: । भूरे: । दत्तस्य । वेदति ॥ वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥४३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
विषय - विश्वमानुष
पदार्थ -
१. (यस्य) = जिस (ते दत्तस्य) = आपसे दिये हुए (भूरेः) = पालन व पोषण के साधनभूत [भृ धारणपोषणयो:] धन को (विश्वमानुषः) = अपने परिवार में सभी को सम्मिलित करनेवाला वसुधाकुटुम्बी-पुरुष (वेदति) = प्राप्त करता है, (तत्) = उस (स्पार्हम् वसु) = स्पृहणीय धन को (आभर) = हमारे लिए भी प्राप्त कराइए
भावार्थ - हम सारे विश्व को अपना परिवार समझते हुए "विश्वमानुष' बनें। हम प्रभु प्रदत्त धन के द्वारा सभी के पालन के लिए यत्नशील हों। प्रभु के अनुग्रह से हमें यह 'विश्वमानुष' को मिलनेवाला स्पृहणीय धन प्राप्त हो। 'विश्वमानुष' बनने के लिए क्रियाशीलता नितान्त आवश्यक है। कितना बड़ा बोझ हमारे कन्धों पर आ पड़ा है। अकर्मण्यता से इसे कैसे उठा पाएँगे, अत: क्रियाशीलता के संकल्पवाला यह व्यक्ति 'इरिम्बिठि' कहलाता है-[बिठम् अन्तरिक्षम्] जिस के हृदय में क्रियाशीलता की भावना है। यह इन्द्र का स्तवन करता है -
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