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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
प्र स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नामिन्द्रं॑ स्तोता॒ नव्यं॑ गीर्भिः। नरं॑ नृ॒षाहं॒ मंहि॑ष्ठम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । स॒म्ऽराज॑म् । च॒र्ष॒णी॒नाम् । इन्द्र॑म् । स्तो॒त॒ । नव्य॑म् । गी॒ऽभि: ॥ नर॑म् । नऽसह॑म् । मंहि॑ष्ठम् ॥४४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सम्राजं चर्षणीनामिन्द्रं स्तोता नव्यं गीर्भिः। नरं नृषाहं मंहिष्ठम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सम्ऽराजम् । चर्षणीनाम् । इन्द्रम् । स्तोत । नव्यम् । गीऽभि: ॥ नरम् । नऽसहम् । मंहिष्ठम् ॥४४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
विषय - सम्राद-मंहिष्ठ
पदार्थ -
१. (चर्षणीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के (सम्माजम्) = जीवनों को सम्यक् दीप्त करनेवाले (नव्यम्) = स्तुति के योग्य (इन्द्रम) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (गीर्भि:) = इन ज्ञानपूर्वक उच्चारित स्तुतिवाणियों से (प्रस्तोत) = प्रकर्षेण स्तुत करो। यह स्तवन ही हमें श्रमशील व परिणामत: दीप्त जीवनवाला बनाएगा। २. उस प्रभु का स्तवन करो जोकि (नरम्) = हमें उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले हैं। (नृषाहम्) = हमारे शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं, (मंहिष्ठम्) = दातृतम है-सर्वाधिक दाता हैं।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु ही हमारे जीवनों को दीप्त बनानेवाले हैं, उन्नति पथ पर ले-चलनेवाले हैं, हमारे शत्रुओं का पराभव करते हैं और हमें सब-कुछ देते हैं।
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