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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
तं सु॑ष्टु॒त्या वि॑वासे ज्येष्ठ॒राजं॒ भरे॑ कृ॒त्नुम्। म॒हो वा॒जिनं॑ स॒निभ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । सु॒ऽस्तु॒त्या । आ । वि॒वा॒से॒ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽराज॑म् । भरे॑ । कृ॒त्नुम् ॥ म॒ह: । वा॒जिन॑म् । स॒निऽभ्य॑: ॥४४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तं सुष्टुत्या विवासे ज्येष्ठराजं भरे कृत्नुम्। महो वाजिनं सनिभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । सुऽस्तुत्या । आ । विवासे । ज्येष्ठऽराजम् । भरे । कृत्नुम् ॥ मह: । वाजिनम् । सनिऽभ्य: ॥४४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
विषय - ज्येष्ठराट-भरे कृत्नु
पदार्थ -
१. (तम्) = उस (ज्येष्ठराजम्) = सबसे महान् सम्राट्, (भरे कृत्नुम्) = संग्राम में कुशल प्रभु को (सुष्टुत्या) = उत्तम स्तुति से (आविवासे) = पूजित करता हूँ। २. उस प्रभु का मैं पूजन करता हूँ जो (सनिभ्यः) = संभजन करनेवालों के लिए (महः वाजिनम्) = महनीय शक्ति देनेवाले हैं। अपने उपासक को प्रभु महान् शक्ति प्रदान करते हैं।
भावार्थ - प्रभु सबसे बड़े समुद्र हैं, युद्धों में प्रभु ही विजय प्राप्त कराते हैं। उपासकों के लिए शक्ति देनेवाले हैं। प्रभु से शक्ति प्राप्त करके यह स्तोता वास्तविक सुख का निर्माण करनेवाला होता है 'शुन:शेप' बनता है। यह देवों में दान देनेवाला 'देवरात' भी कहलाता है। यह प्रभु-स्तवन करता हुआ कहता है -
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