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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
अ॒यमु॑ ते॒ सम॑तसि क॒पोत॑ इव गर्भ॒धिम्। वच॒स्तच्चि॑न्न ओहसे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ सम् । अ॒त॒सि॒ । क॒पोत॑:ऽइव । ग॒र्भ॒ऽधिम् ॥ वच॑: । तत् । चि॒त् । न॒: । ओ॒ह॒से॒ ॥४५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम्। वचस्तच्चिन्न ओहसे ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ऊं इति । ते सम् । अतसि । कपोत:ऽइव । गर्भऽधिम् ॥ वच: । तत् । चित् । न: । ओहसे ॥४५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
विषय - क-पोतः
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे जीव! (अयम्) = यह सोम (उ) = निश्चय से ते-तेरा है, तेरे लिए उत्पन्न किया गया है। (सम् अतसि) = तू इसे सम्यक् प्राप्त करता है। यह तेरे लिए (क-पोतः इव) = आनन्द की नाव के समान है। तेरे सारे आनन्दों का निर्भर इसी पर है। २. इस सोम के रक्षण से ही तू (न:) = हमारे (तत् वचः) = उस वेदवाणीरूप ज्ञानवचन को (चित्) = भी (आ ऊहसे) = सम्यक् जाननेवाला होता है जो (गर्भधिम्) = अपने अन्दर सम्पूर्ण सत्य-ज्ञान को धारण करनेवाला है। सोम ही सुरक्षित होकर हमें दीस बुद्धिवाला बनाकर इसके समझने के योग्य बनाता है।
भावार्थ - प्रभु ने हमारी उन्नति के लिए सोम का सम्पादन किया है। यह सुख देनेवाला है। दीस बुद्धि बनाकर हमें ज्ञान की वाणियों के तत्वों को समझाने के योग्य बनाता है।
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