Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
ऊ॒र्ध्वस्ति॑ष्ठा न ऊ॒तये॒ऽस्मिन्वाजे॑ शतक्रतो। सम॒न्येषु॑ ब्रवावहै ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्व: । ति॒ष्ठ॒ । न॒: । ऊ॒तये॑ । अ॒स्मिन् । वाजे॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ । इति॑ शतऽक्रतो ॥ सम् । अ॒न्येषु॑ । ब्र॒वा॒व॒है॒ ॥४५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतयेऽस्मिन्वाजे शतक्रतो। समन्येषु ब्रवावहै ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्व: । तिष्ठ । न: । ऊतये । अस्मिन् । वाजे । शतक्रतो । इति शतऽक्रतो ॥ सम् । अन्येषु । ब्रवावहै ॥४५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 45; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु-प्रेरणा से कार्य करें
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का सौम्य पुरुष प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञानवाले प्रभो! (अस्मिन् वाजे) = इस जीवन-संग्राम में (नः ऊतये) = हमारे रक्षण के लिए (ऊर्ध्व:तिष्ठ) = आप सदा ऊपर स्थित हों-जागरित रहें। हमें सदा आपका रक्षण प्राप्त हो। २. हम (अन्येषु) = जीवन के अन्य सब कार्यों में भी सं (ब्रवावहै) = मिलकर बात कर लें, अर्थात् आपसे पूछकर-अन्त:स्थित आपकी प्रेरणा को लेकर ही हम सब कार्यों को करनेवाले हों।
भावार्थ - सौम्य पुरुष सदा संग्राम में प्रभु से रक्षणीय होता है। यह प्रभु-प्रेरणा से प्रेरित होकर ही सब कार्यों को करता है। हृदयान्तरिक्ष में सदा क्रियाशीलता की भावनावाला यह 'इरिम्बिठि' कहाता है। यह इस रूप में इन्द्र का स्तवन करता है
इस भाष्य को एडिट करें