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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 45

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
    सूक्त - शुनःशेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४५

    स्तो॒त्रं रा॑धानां पते॒ गिर्वा॑हो वीर॒ यस्य॑ ते। विभू॑तिरस्तु सू॒नृता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तो॒त्रम् । रा॒धा॒ना॒म् । प॒ते॒ । गिर्वा॑ह: । वी॒र॒ । यस्य॑ । ते॒ ॥ विऽभू॑ति: । अ॒स्तु॒ । सू॒नृता॑ ॥४५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तोत्रम् । राधानाम् । पते । गिर्वाह: । वीर । यस्य । ते ॥ विऽभूति: । अस्तु । सूनृता ॥४५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 45; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (वीर) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले! (राधानां पते) = सोम-रक्षण द्वारा सफलताओं के स्वामिन् ! (गिर्वाह:) = ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाले जीव (यस्य ते) = जिस तेरा (स्तोत्रम्) = यह प्रभु-स्तवन चलता है, उस तेरी (विभूतिः अस्तु) = विशिष्ट ऐश्वर्यशालिता हो तथा ऐश्वर्य के साथ (सूनृता) = सदा प्रिय, सत्य वाणी हो।

    भावार्थ - सोम-रक्षण करनेवाला पुरुष वीर तो बनता ही है। वह जीवन में कभी असफल नहीं होता। यह ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाला बनता है। ऐसा बनकर सदा प्रभु-स्तवन करता है। परिणामत: विशिष्ट ऐश्वर्य प्राप्त करके भी सदा प्रिय, सत्य वाणीवाला-सौम्य स्वभाव होता है।

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