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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५०

    कदु॑ स्तु॒वन्त॑ ऋतयन्त दे॒वत॒ ऋषिः॒ को विप्र॑ ओहते। क॒दा हवं॑ मघवन्निन्द्र सुन्व॒तः कदु॑ स्तुव॒त आ ग॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । ऊं॒ इति॑ । स्तु॒वन्त॑: । ऋ॒त॒ऽय॒न्त॒ । दे॒वता॑ । ऋषि॑: । क: । विप्र॑: । ओ॒ह॒ ते॒ ॥ क॒दा । हव॑म् । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । सु॒न्व॒त: । कत् । ऊं॒ इति॑ । स्तु॒व॒त: । आ । ग॒म॒: ॥५०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदु स्तुवन्त ऋतयन्त देवत ऋषिः को विप्र ओहते। कदा हवं मघवन्निन्द्र सुन्वतः कदु स्तुवत आ गमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । ऊं इति । स्तुवन्त: । ऋतऽयन्त । देवता । ऋषि: । क: । विप्र: । ओह ते ॥ कदा । हवम् । मघऽवन् । इन्द्र । सुन्वत: । कत् । ऊं इति । स्तुवत: । आ । गम: ॥५०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 50; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! (सतुवन्त:) = स्तुति करनेवाले लोग (उ) = निश्चय से (कत्) = कैसे (ऋतयन्त) = ऋत की कामनावाले होते हैं। प्रभु के सच्चे स्तोता अवश्य अपने जीवन को ऋतवाला बनाते हैं। (क:) = कोई विरला ही (देवता) = दिव्यगुणोंवाला, (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा (विप्रः) = अपना पूरण करनेवाला ज्ञानी (ओहते) = आपका विचार करता है। २. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् ! (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (कदा) = कब (सुन्वत:) = इस यज्ञशील पुरुष की (हवम्) = पुकार को आप सुनते हैं।

    भावार्थ - प्रभु का स्तोता ऋत का आचरण करता है। ज्ञानीदेव प्रभु का विचार करते हैं। प्रभु यज्ञशील स्तोताओं की पुकार को सुनते हैं। यह प्रभु का स्तोता 'प्रस्कण्व' मेधावी बनता है। यह पुष्ट इन्द्रियोंवाला 'पुष्टिगु' होता है। यह प्रस्कण्व ही अगले सूक्त के १-२ मन्त्रों का ऋषि है, ३-४ मन्त्रों का पुष्टिा। ये कहते हैं कि -

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