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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः। प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । घ॒ । त्वा॒ । सु॒तऽव॑न्त: । आप॑: । न वृ॒क्तऽब॑र्हिष: ॥ प॒वित्र॑स्य । प्र॒ऽस्रव॑णेषु । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । परि॑ । स्तो॒तार॑: । आ॒स॒ते॒ ॥५२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः। पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । घ । त्वा । सुतऽवन्त: । आप: । न वृक्तऽबर्हिष: ॥ पवित्रस्य । प्रऽस्रवणेषु । वृत्रऽहन् । परि । स्तोतार: । आसते ॥५२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
विषय - सुतावन्तः-वृक्तबर्हिषः
पदार्थ -
१. हे (वृत्रहन्) = वासनाविनाशक प्रभो! (वयम्) = हम (घ) = निश्चय से (सुतावन्त:) = सोम का सम्पादन करनेवाले व यज्ञशील बनकर (आपः न) = जलों के समान निरन्तर शान्तभाव से कर्मों में प्रवाहित होते हुए (वृक्तबर्हिषः) = वासनाशून्य हृदयान्तरिक्षवाले (स्तोतार:) = स्तोता बनकर त्वा परि आसते आपका सेवन करनेवाले हों। २. आपकी उपासना करते हुए हम (पवित्रस्य) = ज्ञान के [नहि ज्ञानेन सदशं पवित्रमिह विद्यते] (प्रस्त्रवणेष) = प्रवाहों में अपने को पवित्र कर पाते हैं। आपकी उपासना हमें ज्ञान-जलों में स्नान के द्वारा पवित्र करनेवाली होती है।
भावार्थ - हम सोम का सम्पादन करते हुए प्रभु का उपासन करते हैं। ज्ञान-जलों के प्रवाहों में अपने को पवित्र करते हैं।
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