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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
श्राय॑न्त इव॒ सूर्यं॒ विश्वेदिन्द्र॑स्य भक्षत। वसू॑नि जा॒ते जन॑मान॒ ओज॑सा॒ प्रति॑ भा॒गं न दी॑धिम ॥
स्वर सहित पद पाठश्राय॑न्त:ऽइव । सूर्य॑म् । विश्वा॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । भ॒क्ष॒त॒ ॥ वसू॑नि । जा॒ते । जन॑माने । ओज॑सा । प्रति॑ । भा॒गम् । न । दी॒धि॒म॒ ॥५८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रायन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत। वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम ॥
स्वर रहित पद पाठश्रायन्त:ऽइव । सूर्यम् । विश्वा । इत् । इन्द्रस्य । भक्षत ॥ वसूनि । जाते । जनमाने । ओजसा । प्रति । भागम् । न । दीधिम ॥५८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
विषय - श्रायन्त इव सूर्यम्
पदार्थ -
१. (सुर्यम् इव) = सूर्य की भाँति, अर्थात् जैसे सूर्य कभी विश्राम नहीं लेता, इसी प्रकार (श्रायन्तः) = [श्रायति to sweat]-श्रम के कारण पसीने से निरन्तर तर-बतर होते हुए (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (विश्वा इत् वसूनि) = सब वसुओं [धनों] को (भक्षत) = उपभुक्त करो। विना श्रम के खाना पाप समझो। सब धनों को प्रभु का ही जानो। २. (ओजसा) = बल से-ओजस्विता से (जाते) = उत्पन्न हुए-हुए तथा (जनमाने) = आगे उत्पन्न होनेवाले धन में (भागं न) = अपने भाग के समान वसु को (प्रतिदीधिम) = प्रतिदिन धारण करें। हम श्रम से-बल से धनों का अर्जन करें और उन्हें अपने-अपने भाग के अनुसार बाँटकर खानेवाले बनें।
भावार्थ - श्रम से-पसीने से तर-बतर होकर हम धनों को कमाएँ और उन्हें अपने-अपने भाग के अनुसार बाँटकर खानेवाले बनें। -
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