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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
अन॑र्शरातिं वसु॒दामुप॑ स्तुहि भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तयः॑। सो अ॑स्य॒ कामं॑ विध॒तो न रो॑षति॒ मनो॑ दा॒नाय॑ चो॒दय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअन॑र्शऽरातिम् । व॒सु॒ऽदााम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । भ॒द्रा: । इन्द्र॑स्य । रा॒तय॑: ॥ स: । अ॒स्य॒ । काम॑म् । वि॒ध॒त: । न । रो॒ष॒ति॒ । मन॑: । दा॒नाय॑ । चो॒दय॑न् ॥५८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनर्शरातिं वसुदामुप स्तुहि भद्रा इन्द्रस्य रातयः। सो अस्य कामं विधतो न रोषति मनो दानाय चोदयन् ॥
स्वर रहित पद पाठअनर्शऽरातिम् । वसुऽदााम् । उप । स्तुहि । भद्रा: । इन्द्रस्य । रातय: ॥ स: । अस्य । कामम् । विधत: । न । रोषति । मन: । दानाय । चोदयन् ॥५८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
विषय - 'अनर्शराति' प्रभु
पदार्थ -
१. उस (अनर्शरातिम्) = निष्पाप दानवाले [Asinless donor] (वसुदाम्) = धनों के दाता प्रभु को (उपस्तुहि) = उपस्तुत कर । (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (रातयः) = दान (भद्रा:) = कल्याणकर हैं। २. (सः) = वे प्रभु (अस्य विधत:) = इस-[प्रभु]-की पूजा करनेवाले की-उपासक की कामम अभिलाषा को (न रोषति) = हिंसित नहीं करते। प्रभु उपासक की अभिलाषा को पूर्ण करते हैं और (मन:) = उपासक के मन को दानाय दान के लिए (चोदयन) = प्रेरित करते हैं।
भावार्थ - वसुओं के दाता प्रभु का हम स्तवन करें। प्रभु स्तोता की कामना को पूर्ण करते हैं और उसके मन को दान के लिए प्रेरित करते हैं।
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