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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 60

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 60/ मन्त्र 5
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६०

    ए॒वा हि ते॒ विभू॑तय ऊ॒तय॑ इन्द्र॒ माव॑ते। स॒द्यश्चि॒त्सन्ति॑ दा॒शुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । हि । ते॒ । विऽभू॑तय: । ऊ॒तय॑: । इ॒न्द्र॒ । माऽव॑ते ॥ स॒द्य: । चि॒त् । सन्ति॑ । दा॒शुषे॑ ॥६०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित्सन्ति दाशुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । हि । ते । विऽभूतय: । ऊतय: । इन्द्र । माऽवते ॥ सद्य: । चित् । सन्ति । दाशुषे ॥६०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 60; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (एवा) = इसप्रकार-गतमन्त्र के अनुसार वेदवाणी के प्रति अपने को अर्पण करने पर-ज्ञानप्रधान जीवन बिताने पर (हि) = निश्चय से (ते) = आपकी (विभूतयः) = विभूतियों-सूर्य-चन्द्र-तारे आदि उत्कृष्ट रचनाएँ (मावते) = ज्ञानलक्ष्मी-सम्पन्न पुरुष के लिए [मा-ज्ञानलक्ष्मी] (ऊतयः) = रक्षक (सन्ति) = हो जाती है। प्रभु की सब विभूतियाँ ज्ञानी पुरुष का रक्षण करनेवाली होती हैं। २. ये विभूतियाँ (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए-ज्ञान के प्रति अपने को दे डालनेवाले के लिए (चित्) = निश्चय से (सद्य:) = शीघ्र ही प्राप्त होती हैं। प्रभु की इन विभूतियों से रक्षण प्राप्त करके यह सचमुच उत्तम लक्ष्मीवाला बनता है।

    भावार्थ - प्रभु की सब विभूतियाँ ज्ञानी पुरुष के लिए रक्षण का साधन बन जाती हैं।

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