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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 60

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 60/ मन्त्र 6
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६०

    ए॒वा ह्य॑स्य॒ काम्या॒ स्तोम॑ उ॒क्थं च॒ शंस्या॑। इन्द्रा॑य॒ सोम॑पीतये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । हि । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । स्तोम॑: । उ॒क्थम् । च॒ । शंस्या॑ ॥ इन्द्रा॑य । सोम॑ऽपीतये ॥६०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा ह्यस्य काम्या स्तोम उक्थं च शंस्या। इन्द्राय सोमपीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । हि । अस्य । काम्या । स्तोम: । उक्थम् । च । शंस्या ॥ इन्द्राय । सोमऽपीतये ॥६०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 60; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (एवा) = इसप्रकार (हि) = निश्चय से (अस्य) = इस प्रभु के काम्या कमनीय पदार्थ-सुन्दर रचनाएँ (स्तोमः) = प्रभु का स्तवन बन जाते हैं। इन पदार्थों के अन्दर एक जितेन्द्रिय पुरुष प्रभु की महिमा को देखता है (च) = और (शंस्या) = प्रभु के सब शंसनीय कर्म (उक्थम्) = ऊँचे से गायन के योग्य होते हैं। एक जितेन्द्रिय पुरुष प्रभु की महिमा का गायन करता है। २. ये सब स्तोम और (उक्थ इन्द्राय) = एक जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (सोमपीतये) = सोम-रक्षण का साधन होते हैं। इन स्तोमों और उक्थों को उच्चरित करता हुआ यह वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता और सोम को अपने ही अन्दर सुरक्षित कर पाता है।

    भावार्थ - हम प्रभु से रचित कमनीय पदार्थों को देखते हुए प्रभु का स्तवन करें। प्रभु के शंसनीय कर्मों का ऊँचे से गायन करें। इसप्रकार वासनाओं से अनाक्रान्त होते हुए सदा सोम का रक्षण कर पाएं। इस सोम-रक्षण से हमारी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ सदा उत्तम कर्मों में ही प्रवृत्त होंगी। हम "गोषूक्ती व अश्वसूक्ती' बनेंगे। ये ही अगले सूक्त के ऋषि हैं -

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