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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 61

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६१

    तं ते॒ मदं॑ गृणीमसि॒ वृष॑णं पृ॒त्सु सा॑स॒हिम्। उ॑ लोककृ॒त्नुम॑द्रिवो हरि॒श्रिय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ते॒ । मद॑म् । मणी॒म॒सि॒ । वृष॑णम् । पृ॒तऽसु । स॒स॒हिम् ॥ ऊं॒ इति॑ । लो॒क॒ऽकृ॒त्नुम् । अ॒द्रि॒ऽव॒: । ह॒रि॒ऽश्रिय॑म् ॥६१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं ते मदं गृणीमसि वृषणं पृत्सु सासहिम्। उ लोककृत्नुमद्रिवो हरिश्रियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ते । मदम् । मणीमसि । वृषणम् । पृतऽसु । ससहिम् ॥ ऊं इति । लोकऽकृत्नुम् । अद्रिऽव: । हरिऽश्रियम् ॥६१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! (ते) = आपके द्वारा जिसकी व्यवस्था की गई है (तम्) = उस सोम के रक्षण से उत्पन्न (मदम्) = उल्लास की (गृणीमसि) = हम प्रशंसा करते हैं। यह मद (वृषणम्) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला है। (पृत्सु) = संग्रामों में (सासहिम्) = शत्रुओं का पराभव करनेवाला है। २. (उ) = और निश्चय से यह मद हमारे जीवनों में (लोककृलम्) = प्रकाश करनेवाला है [लोक-आलोक]। हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो! यह मद [उल्लासजनक सोम] ही (हरिश्रियम्) = इन्द्रियों की श्री का कारण होता है। एवं, इन्द्रियाँ इसी से दीस होती व शक्ति प्रास करती हैं।

    भावार्थ - प्रभु के उपासन से वासना-विनाश के द्वारा सोम-रक्षण होकर हमें उल्लास प्राप्त होता है जो हमें शक्तिशाली बनाकर संग्राम में विजयी करता है, प्रकाश को प्रास कराता है और इन्द्रियों की श्री को बढ़ाता है।

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