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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 61

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 6
    सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६१

    स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे। इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रवस्या च॒ यन्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । रा॒ज॒सि॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एक॑: । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ ॥ इन्द्र॑ । जैत्रा॑ । श्र॒व॒स्या॑ । च॒ । यन्त॑वे ॥६१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स राजसि पुरुष्टुतँ एको वृत्राणि जिघ्नसे। इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । राजसि । पुरुऽस्तुत । एक: । वृत्राणि । जिघ्नसे ॥ इन्द्र । जैत्रा । श्रवस्या । च । यन्तवे ॥६१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. हे (पुरुष्टुत) = बहुत-से मनुष्यों से स्तुत प्रभो! स: वे आप राजसि-सारे ब्रह्माण्ड के शासक हैं। (एक:) = बिना किसी अन्य की सहायता के अकेले ही (वृत्राणि जिघ्नसे) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को नष्ट करते हैं। २. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप वासनाओं को विनष्ट करके हमारे लिए (जैत्रा) = विजय के साधनभूत बलों को (च) = और (श्रवस्या) = श्रवणीय ज्ञानों को (यन्तवे) = देने के लिए होते हैं।

    भावार्थ - हम प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हमारे लिए जैत्र बल व श्रवणीय ज्ञान को प्राप्त कराते हैं। प्रभु-स्तवन के द्वारा 'जैत्र बल' व 'श्रवणीय ज्ञान' को प्राप्त करके अपना उत्तम भरण करनेवाला 'सौभरि' अगले सूक्त में १-४ मन्त्रों का ऋषि है। ५-७ तक ऋषि 'नृमेध'-मनुष्यों के सम्पर्क में चलनेवाला-सबके साथ उन्नति की कामनावाला है तथा ८-१० का ऋषि "गोषूक्ती व अश्वसूक्ती' हैं-ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का उत्तम प्रयोग करनेवाले। 'सौभरि' प्रार्थना करता है -

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