अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 4
सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६१
तम्व॒भि प्र गा॑यत पुरुहू॒तं पु॑रुष्टु॒तम्। इन्द्रं॑ गी॒र्भिस्त॑वि॒षमा वि॑वासत ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊं॒ इति॑ । अ॒भि । प्र । गा॒य॒त॒ । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । पु॒रु॒स्तु॒तम् । इन्द्र॑म् । गी॒ऽभि: । त॒वि॒षम् । आ । वि॒वा॒स॒त॒ ॥६१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तम्वभि प्र गायत पुरुहूतं पुरुष्टुतम्। इन्द्रं गीर्भिस्तविषमा विवासत ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊं इति । अभि । प्र । गायत । पुरुऽहूतम् । पुरुस्तुतम् । इन्द्रम् । गीऽभि: । तविषम् । आ । विवासत ॥६१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 4
विषय - प्रभु-गायन, प्रभु-पूजन
पदार्थ -
१. (तम्) = उस (पुरुहूतम्) = बहुतों-से पुकारे जानेवाले (पुरुष्टुतम्) = खूब ही स्तुति किये जानेवाले प्रभु का (उ) = ही (अभिप्रगायत) = प्रात:-सायं गुणगान करो। यह प्रभु का गुणानुवाद ही आसुरवृत्तियों को दूर भगाने का साधन बनता है। २. उस (तविषम्) = महान, सर्वशक्तिमान् (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (गीभिः) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुतिवाणियों से (आविवासत) = पूजित करो। प्रभु-पूजन ही तो हमें शत्रुओं के आक्रमण से बचाता है।
भावार्थ - हम प्रभु के गुणों का गायन करें-प्रभु का पूजन करें। यह गायन व पूजन ही हमें 'महान्, शक्तिमान् व ऐश्वर्यवान्' बनाएगा।
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