अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६१
येन॒ ज्योतीं॑ष्या॒यवे॒ मन॑वे च वि॒वेदि॑थ। म॑न्दा॒नो अ॒स्य ब॒र्हिषो॒ वि रा॑जसि ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । ज्योतीं॑षि । आ॒यवे॑ । मन॑वे । च॒ । वि॒वेदि॑थ ॥ म॒न्दा॒न: । अ॒स्य । ब॒र्हिष॑: । वि । रा॒ज॒सि॒ ॥६१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येन ज्योतींष्यायवे मनवे च विवेदिथ। मन्दानो अस्य बर्हिषो वि राजसि ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । ज्योतींषि । आयवे । मनवे । च । विवेदिथ ॥ मन्दान: । अस्य । बर्हिष: । वि । राजसि ॥६१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
विषय - आयवे-मनवे
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (येन) = जिस सोमपान-जनित मद से आप (आयवे) = गतिशील व्यक्ति के लिए (च) = और (मनवे) - विचारशील व्यक्ति के लिए (ज्योतीषि) = ज्योतियों को (विवेदिथ) = प्राप्त कराते हैं, (अस्य) = इस (बर्हिषः) = वृद्धि के कारणभूत सोम का (विराजसि) = विशेष रूप से दीपन करते हैं। इस सोम के दीपन से ही (मन्दान:) = आप इन जीवों को आनन्दित करते हैं। २. सोम-रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम आयु' बनें, 'मनु' बनें। उत्तम कर्मों में लगे रहना और स्वाध्यायशील होना ही हमें सोम-रक्षण के योग्य बनाता है। यह रक्षित सोम ही सब वृद्धियों का कारण बनता है। यही जीवन में आनन्द का भी हेतु होता है।
भावार्थ - हम गतिशील व विचारशील बनकर सोम का रक्षण करें। यह सुरक्षित सोम वृद्धि व आनन्द का कारण बनेगा।
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