अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 5
सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६१
यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी। गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्वर्वृषत्व॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । द्वि॒ऽबर्ह॑स: । बृ॒हत् । सह॑: । दा॒धार॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । गि॒रीन् । अज्रा॑न् । अ॒प: । स्व॑: । वृ॒ष॒ऽत्व॒ना ॥६१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य द्विबर्हसो बृहत्सहो दाधार रोदसी। गिरीँरज्राँ अपः स्वर्वृषत्वना ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । द्विऽबर्हस: । बृहत् । सह: । दाधार । रोदसी इति । गिरीन् । अज्रान् । अप: । स्व: । वृषऽत्वना ॥६१.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 5
विषय - सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान्-सर्वाधार
पदार्थ -
१. (यस्य) = जिस (द्विबर्हस:) = ज्ञान व शक्ति-दोनों दृष्टिकोणों से बढ़े हुए प्रभु का (बृहत् सहः) = महान् बल रोदसी दाधार-द्यावापृथिवी का धारण करता है, वे प्रभु ही वृषत्वना-अपने वीर्य व सामर्थ्य से गिरीन्-पर्वतों को, अजान्-खेतों को, अपः-जलों को तथा स्व:-प्रकाश को धारण करते हैं। २. वस्तुतः प्रभु ही सबका धारण करनेवाले हैं। सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् होने से वे प्रभु सब लोक-लोकान्तरों व भूतों का ठीक से धारण कर रहे हैं। प्रभु का उपासक भी ज्ञान व शक्ति को बढ़ाता हुआ अपने जीवन में मस्तिष्क व शरीर दोनों को सुन्दरता से धारित करता है।
भावार्थ - वे सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने सामर्थ्य से सारे ब्रह्माण्ड का धारण कर रहे हैं |
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