अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
ए॒वा रा॒तिस्तु॑वीमघ॒ विश्वे॑भिर्धायि धा॒तृभिः॑। अधा॑ चिदिन्द्र मे॒ सचा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । रा॒ति: । तु॒वि॒ऽम॒घ॒ । विश्वे॑भि: । धा॒यि॒ । धा॒तृऽभि॑: ॥ अध॑ । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । मे॒ । सचा॑ ॥६०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा रातिस्तुवीमघ विश्वेभिर्धायि धातृभिः। अधा चिदिन्द्र मे सचा ॥
स्वर रहित पद पाठएव । राति: । तुविऽमघ । विश्वेभि: । धायि । धातृऽभि: ॥ अध । चित् । इन्द्र । मे । सचा ॥६०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
विषय - धाता
पदार्थ -
१. हे (तुवीमघ) = महान् ऐश्वर्यवाले प्रभो! (एवा) = इसप्रकार, अर्थात् आपके स्मरणपूर्वक कर्म करने के द्वारा (विश्वेभि:) = सब (धातृभिः) = धारणात्मक कर्म करनेवालों से (राति:धायि) = आपका दान धारण किया जाता है। ये धाता लोग आपसे ऐश्वर्य प्राप्त करके उस ऐश्वर्य का विनियोग धारणात्मक कर्मों में करते हैं। २. (अधा) = अब जबकि मैं ऐश्वर्य का विनियोग धारणात्मक कौ में करूँ, हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (चित्) = निश्चय से (मे सचा) = मेरे साथ होनेवाले होइए। आपको साथी के रूप में पाकर ही मैं उत्तम कार्यों को करता रह सकूँगा।
भावार्थ - लोकहित के कर्मों में ऐश्वर्य का विनियोग करनेवाले ही प्रभु से ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं-प्रभु इन्हीं के साथी [मित्र] होते हैं।
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